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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 49

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
    सूक्त - गार्ग्य देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अग्निस्तवन सूक्त

    न॒हि ते॑ अग्ने त॒न्वः॑ क्रू॒रमा॒नंश॒ मर्त्यः॑। क॒पिर्ब॑भस्ति॒ तेज॑नं॒ स्वं ज॒रायु॒ गौरि॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्व᳡: । क्रू॒रम् । आ॒नंश॑ । मर्त्य॑: । क॒पि: । ब॒भ॒स्ति॒ । तेज॑नम् । स्वम् । ज॒रायु॑ । गौ:ऽइ॑व ॥४९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मर्त्यः। कपिर्बभस्ति तेजनं स्वं जरायु गौरिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । ते । अग्ने । तन्व: । क्रूरम् । आनंश । मर्त्य: । कपि: । बभस्ति । तेजनम् । स्वम् । जरायु । गौ:ऽइव ॥४९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (अग्ने) हे परमेश्वर अग्नि ! (ते) तेरे (तन्वः) विस्तृत प्रकाश-स्वरूप की (क्रूरम्) तीक्ष्णता१ को (मर्त्यः) मरणधर्मा१ मनुष्य ( नहि ) नहीं (आनंश) प्राप्त होता। (कपिः) उदक का पान करने वाले आदित्य सदृश तेजस्वी परमेश्वर अग्नि, (तेजनम्) अध्यात्मिक ज्ञान द्वारा तेजस्वी व्यक्ति को (बभस्ति) निजस्वरूप के प्रकाश द्वारा प्रदीप्त अर्थात् प्रकाशित कर देता है, (इव) जैसे (गौ:) गौ (जरायु) जरायुज वत्स को (बभस्ति) प्रदीप्त अर्थात् प्रकाशित कर देती है ।

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