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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
मे॒ष इ॑व॒ वै सं च॒ वि चो॒र्वच्यसे॒ यदु॑त्तर॒द्रावुप॑रश्च॒ खाद॑तः। शी॒र्ष्णा शिरोऽप्स॒साप्सो॑ अ॒र्दय॑न्नं॒शून्ब॑भस्ति॒ हरि॑तेभिरा॒सभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमे॒ष:ऽइ॑व । वै । सम् । च॒ । वि । च॒ । उ॒रु । अ॒च्य॒से॒ । यत् । उ॒त्त॒र॒ऽद्रौ । उप॑र: । च॒ । खाद॑त: । शी॒र्ष्णा: । शिर॑: । अप्स॑सा । अप्स॑: । अ॒र्दय॑न् । अं॒शून् । ब॒भ॒स्ति॒ । हरि॑तेभि: । आ॒सऽभि॑:॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मेष इव वै सं च वि चोर्वच्यसे यदुत्तरद्रावुपरश्च खादतः। शीर्ष्णा शिरोऽप्ससाप्सो अर्दयन्नंशून्बभस्ति हरितेभिरासभिः ॥
स्वर रहित पद पाठमेष:ऽइव । वै । सम् । च । वि । च । उरु । अच्यसे । यत् । उत्तरऽद्रौ । उपर: । च । खादत: । शीर्ष्णा: । शिर: । अप्ससा । अप्स: । अर्दयन् । अंशून् । बभस्ति । हरितेभि: । आसऽभि:॥४९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
हे परमेश्वर (मेष:) की (इव) तरह तू (वै) निश्चय से (सम् अच्यसे) संगत होता है, (वि च अच्यसे) और संगति से विरहित होता है, (यत्) जब कि (उत्तरद्रौ) उत्कृष्ट द्रुम अर्थात् वृक्ष में (उपरः) मेघ (च) और तू [आदित्यरूप में] अर्थात् तुम दोनों (खादतः) खाते हो। (शीर्ष्णा शिरः) सिर के साथ सिर को, (अप्ससा१ अप्सः१) रूप के साथ रूप को [उपमित करता हुआ] परमेश्वर (हरितेभिः आसभिः) हरे वृक्षों रूपी मुखों द्वारा (अंशून्) रश्मियो को (अर्दयन्) हिंसित करता हुआ, चबाता हुआ (बभस्ति) खाता है।
टिप्पणी -
[मेष द्वारा मेष राशि अभिप्रेत है। मेषराशि का संगम सूर्य के साथ चैत्रमास में होता है, तब वर्ष का आरम्भ होता है, तत्पश्चात् मेष राशि का संगम सूर्य से रहित हो जाता है, और सूर्य वृषराशि में चला जाता है। इसी प्रकार परमेश्वर का संगम मेष अर्थात् उन्मेषित द्वारा जगत् के साथ सृष्टि काल में होता है। यथा "विश्वस्य मिषतो" वशी सूर्याचन्द्रमसौ धात्रा यथापूर्वमकल्पयत्" (ऋ० १०॥१९०।३)। इस प्रकार उन्मिषित जगत् को मेष कहा है। तदनन्तर प्रलय काल में परमेश्वर का संगम सृष्ट जगत् से छूट जाता है, और "मेष निमिषित जगत" परमेश्वर के संगम से रहित हो जाता है। उत्तरद्रौ; उत्तरद्र है उत्तरद्रुम, उत्तरवृक्ष (उणा १।३४, दयानन्द)। यह है "श्रेष्ठवृक्षा," ब्रह्माण्ड। ब्रह्माण्ड है अश्वत्थ वृक्ष। यथा "अश्वत्थ१ वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता" (यजु० ३५।४)। इस अश्वत्थ ब्रह्माण्ड में "उपर" अर्थात् मेघ (उपरः मेघनाम; निघं १।१०) और आदित्य, जलरूपी अन्न खाते हैं। आदित्य है परमेश्वर का शरीर जिस में परमेश्वर बसा हुआ है, जैसे शरीर में जीवात्मा। इसलिये आदित्य द्वारा खाना है आदित्यस्थ परमेश्वर का खाना, जैसे शरीर द्वारा खाना है शरीरस्थ जीवात्मा का खाना। अतः कहा है "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म ।।" (यजु० ४०।१७) [उपर अर्थात् मेघ, जलरूपी अन्न को खाता ही है, और आदित्य भी निज रश्मियों द्वारा जल का पान करता रहता है, यह है आदित्य का जलान्न का खाना। शीर्णा शिरः; यथा "शीर्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३), अर्थात् परमेश्वर-पुरुष के काल्पनिक (यजु० ३१।१३, अकल्पयन)। "शिर" से द्यौः शिरः प्रकट हुई है। द्यौः को ब्रह्माण्ड का "शिरः" कहा है। व्याख्येय मन्त्र में द्यौः रूपी "शिर" से परमेश्वर-पुरुष के "शिरः" को उपमित किया है। अप्सा अप्सः = अप्सस् का अर्थ है रूप। (अप्स: रूपनाम, निघं० ३।७)। द्यौः, अग्नि द्वारा प्रकाशमान है, इसी प्रकार परमेश्वर-पुरुष ज्ञानाग्नि द्वारा प्रकाशमान है। इस प्रकार द्यौः के अग्निरूपी रूप द्वारा परमेश्वर-पूरुष के रूप अर्थात् स्वरूप, अर्थात् निज रूप को उपमित किया है। हरितेभिः आसभिः; आसभिः= आस्यै मुखै:। प्रत्येक हरा वृक्ष मानों परमेश्वर का आस्य है, मुख है। हरितेभि: में बहुवचन है, अतः आसभिः में भी बहुवचन है। प्रत्येक हरा वृक्ष "अंशून्" अर्थात् सूर्य की रश्मियों को खा कर अर्थात् निज स्वरूप में विलीन कर हरा होता है। वृक्षों, वनस्पतियों में हरापन सूर्य की रश्मियों के कारण होता है। यथा "अविर्वनाम देवता ऋतेनास्ते परीवृता। तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः" (अथर्व० १२॥८॥३१), अर्थात् 'अविः" सूर्यपरिवार का रक्षक सूर्य, ऋत अर्थात् जल के आवरण द्वारा घिरा हुआ है, उस के रूप द्वारा ये बृक्ष हरे हैं, और हरी लताओं को मालारूप में धारण किये हुए हैं। हरे वृक्षों में व्यापक परमेश्वर मानो हरे वृक्ष रूपी सुखों द्वारा "अंशून्" अर्थात् सूर्य की रश्मियों को खाता है। ऋतम् उदकनाम (निघं० १॥१२)। "अर्दयन् बभस्तिः" अर्द हिंसायाम् (चुरादि:); बभस्तिरत्तिकर्मा (निरुक्त ५।१२)। इन शब्दों द्वारा भक्षणक्रिया के प्रक्रम का निर्देश किया है। भक्षण में भक्ष्य को मुख में डाल कर उसके स्वरूप की हिंसा की जाती है, दान्तों द्वारा चबा कर उस के स्वरूप की विकृत किया जाता है, तत्पश्चात् उसे गले द्वारा उदर में पहुंचा दिया जाता है। यह है भक्षण प्रक्रम। परमेश्वर के आस्य हैं हरे वृक्ष, परमेश्वर इन आस्यों द्वारा अंशुओं, सूर्य की रश्मियों को मानो प्रथम चबाता, और उन के स्वरूपों को शक्ति में विकृत कर, हरे वृक्षों के शरीरों में विलोन करा लेता है। हरे वृक्षों के हरे पत्ते तो आस्यरूप हैं, और वृक्ष शरीररूप हैं।] [१. (१) अप्सा= यथा "नक्षत्राणि रूपम्" (यजु० ३१॥२२), परमेश्वर नक्षत्रों के रूप द्वारा निजरूप को उपमित करता हुआ। आदित्य भी नक्षत्र है। यथा "नक्षत्रं सूर्यम्" (ऋ० १०॥१५६।४); अर्थात् सूर्य है नक्षत्र। स्वस्थ आंख द्वारा जितने नक्षत्र द्युलोक में दृष्टिगोचर होते हैं, वे सब सूर्य है। वे स्वतः प्रकाशी है। परमेश्वर भी तद्वत् स्वतः प्रकाशी है। इसलिये परमेश्वर को "आदित्यवर्णम्" भी कहा है। पथा "आदित्यवर्ण, तमसः परस्तात्" (यजु० ३१॥१८)। तथा "नक्षत्राणि रूपम्" भी (यजु० ३१॥२२)। (२) अपः अपस्= रूपनाम। यथा "अप्स इति रूपनामाप्सातेरप्सानीयं भवति” (निरुक्त ५॥३॥१३)। प्सा भक्षणे (अदादिः)। १. हे जीवो ! जगदीश्वर ने (अश्वत्ये) कल ठहरेगा या नहीं ऐसे अनित्य संसार में (व:) तुम लोगों की (निषदनम्) स्थिति की, (पर्ण) पत्ते के तुल्य चंचल जीवन [शरीर] में (वः) तुम्हारी (वसति:) निवास (कृता) किया [है] (दयानन्द)।]