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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सूक्त
उदे॑नमुत्त॒रं न॒याग्ने॑ घृ॒तेना॑हुत। समे॑नं॒ वर्च॑सा सृज प्र॒जया॑ च ब॒हुं कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ए॒न॒म् । उ॒त्ऽत॒रम् । न॒य॒ । अग्ने॑ । घृ॒तेन॑ । आ॒ऽहु॒त॒ । सम् । ए॒न॒म् । वर्च॑सा । सृ॒ज॒ । प्र॒ऽजया॑ । च॒ । ब॒हुम् । कृ॒धि॒ ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदेनमुत्तरं नयाग्ने घृतेनाहुत। समेनं वर्चसा सृज प्रजया च बहुं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । एनम् । उत्ऽतरम् । नय । अग्ने । घृतेन । आऽहुत । सम् । एनम् । वर्चसा । सृज । प्रऽजया । च । बहुम् । कृधि ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(घृतेन आहुत) घृत द्वारा आहुति१ प्राप्त (अग्ने) हे अग्नि ! (एनम्) इस (उत्तरम्) अपेक्षया उत्कृष्ट पुरुष को (उत् नय) उन्नत कर अथवा उन्नति के मार्ग पर ले चल। (एनम्) इसे (वर्चसा) तेज के साथ (सम् सृज) संयुक्त कर, (च) और (प्रजया) सन्तान, गौ, अश्व आदि द्वारा (बहुम् कृधि) प्रभूत कर।
टिप्पणी -
[सम्भवतः अग्नि द्वारा अग्निहोत्रादि यज्ञ सूचित किये हैं, तथा मन्त्र ३ भी इसी अभिप्राय का सूचक है। "एनम् " द्वारा गृहस्थ व्यक्ति अभिप्रेत है, इसलिये मन्त्र ३ में "गृहे" शब्द पठित है। "उत् नय" द्वारा “द्यौ: पिता" अभिप्रेत है (सूक्त ४।३)। यज्ञियाग्नि में समुन्नत करने और प्रजा प्रदान की शक्ति नहीं]। [१. घृताहुति यद्यपि यज्ञियाग्नि में दी जाती है, तो भी यह आहुति यज्ञियाग्नि प्रविष्ट परमेश्वराग्नि में दी गयी जाननी चाहिये। यथा "अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट:" (अथर्व ४।३९।९)। यज्ञियाग्नि में मन्त्रोक्तशक्ति नहीं। यह शक्ति परमेश्वराग्नि में है। यह अभिप्राय सूक्त के अन्य मन्त्रों में भी जानना चाहिये।]