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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सूक्त
इन्द्रे॒मं प्र॑त॒रं कृ॑धि सजा॒ताना॑मसद्व॒शी। रा॒यस्पोषे॑ण॒ सं सृ॑ज जी॒वात॑वे ज॒रसे॑ नय ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । इ॒मम् । प्र॒ऽत॒रम् । कृ॒धि॒ । स॒ऽजा॒ताना॑म् । अ॒स॒त् । व॒शी । राय: । पोषे॑ण । सम् । सृ॒ज॒। जीवात॑वे । जरसे॑ । नय ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेमं प्रतरं कृधि सजातानामसद्वशी। रायस्पोषेण सं सृज जीवातवे जरसे नय ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । इमम् । प्रऽतरम् । कृधि । सऽजातानाम् । असत् । वशी । राय: । पोषेण । सम् । सृज। जीवातवे । जरसे । नय ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमैश्वर्य के स्वामिन् परमेश्वर (इमम् ) इस गृहस्थ व्यक्ति को (प्रतरम्) औरों की अपेक्षा प्रकृष्ट (कृधि) कर, (सजातानाम्) ताकि समान घर में उत्पन्न हुओं को (वशी) वश में करने वाला (असत्) यह हो जाय। (रायस्पोषेण) धन की सम्पुष्टि के साथ (संसृज) इस का संसर्ग कर। (जीवातवे) जीने के लिये इसे (जरसे) जरावस्था तक (नय) प्राप्त करा, पहुंचा।
टिप्पणी -
[गृहस्थ व्यक्ति गृह में बड़ा भाई प्रतीत होता है। यह अन्य भाईयों को निज प्रबन्ध में रख सके, यह इन्द्र से प्रार्थना की गई है। प्रबन्ध में रखने के लिये बड़े भाई की "आर्थिक समृद्धि" चाहिये ताकि वह परिवार के सब व्यक्तियों का पालन पोषण कर सके। इसलिये "धन की पुष्टि" के साथ उस का संसर्ग भी आवश्यक है]।