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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वाङ्गिरा
देवता - शेपोऽर्कः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - वाजीकरण सूक्त
याव॑द॒ङ्गीनं॒ पार॑स्वतं॒ हास्ति॑नं॒ गार्द॑भं च॒ यत्। याव॒दश्व॑स्य वा॒जिन॒स्ताव॑त्ते वर्धतां॒ पसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठया॒व॒त्ऽअ॒ङ्गीन॑म् । पार॑स्वतम् । हास्ति॑नम् । गार्द॑भम् । च॒ । यत् । याव॑त् । अश्व॑स्य । वा॒जिन॑: । ताव॑त् । ते॒ । व॒र्ध॒ता॒म् । पस॑: ॥७२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यावदङ्गीनं पारस्वतं हास्तिनं गार्दभं च यत्। यावदश्वस्य वाजिनस्तावत्ते वर्धतां पसः ॥
स्वर रहित पद पाठयावत्ऽअङ्गीनम् । पारस्वतम् । हास्तिनम् । गार्दभम् । च । यत् । यावत् । अश्वस्य । वाजिन: । तावत् । ते । वर्धताम् । पस: ॥७२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यावद् अङ्गीनम्) जितने अवयवों वाला (पारस्वतम्= पारावतम्) कबूतर का, (हास्तिनम्) हाथो का, (च यत्) और जो (गार्दभम्) गर्दभ का, (यावत्) जितना (वाजिनः अश्वस्य) शक्तिशाली अश्व का (पस:) राष्ट्र या राज्य है [हे राजन् !] (तावत्) उतना (ते) तेरा (पस:) राष्ट्र या राज्य (वर्धताम्) बढ़े, विस्तृत हो। पसः =राष्ट्र, मन्त्र (६।७२।१)।
टिप्पणी -
["पारस्वतम्" छान्दस पाठ है, और लौकिक संस्कृत पाठ है "पारावतम्"। "सकार" हलन्त का विकार "अकार" हुआ है। मन्त्र में "हस्ती" आदि सब अमानुष प्राणिवाचक पद हैं, अत: "पारस्वतम्" पद भी अमानुष प्राणिवाचक पद प्रतीत होता है, जो कि "पारावतम्" सम्भव है। पारावत् है कबूतर। "पारावतम्" आदि द्युलोकस्थ तारागणों की प्राण्याकृतियां अभिप्रेत हैं। इन आकृतियों में जितने-जितने तारा हैं वे उस-उस के अङ्ग हैं, अवयव है। प्रत्येक "पारावत" आदि जितनी डिगरियों [अंशों] में फैला हुआ है, विस्तृत हुआ है, उतने विस्तार वाला उस-उस का मानो राष्ट्र है, राज्य है। राजा के प्रति कहा है कि तेरा राष्ट्र या राज्य भी इन्हीं विस्तारों के सदृश विस्तृत हो। वर्तमान द्युलोक के चित्र अभिप्रेत वैदिक-चित्रों के सर्वथा अनुरूप नहीं है। चित्रों की व्याख्या परिशिष्ट में देखिए।