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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
सूक्त - कबन्ध
देवता - जातवेदा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्रतिष्ठापन सूक्त
जात॑वेदो॒ नि व॑र्तय श॒तं ते॑ सन्त्वा॒वृतः॑। स॒हस्रं॑ त उपा॒वृत॒स्ताभि॑र्नः॒ पुन॒रा कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठजात॑ऽवेद: । नि । व॒र्त॒य॒ । श॒तम् । ते॒ । स॒न्तु॒ । आ॒ऽवृत॑: । स॒हस्र॑म् । ते॒ । उ॒प॒ऽआ॒वृत॑: । ताभि॑: । न॒: । पुन॑: । आ । कृ॒धि॒ ॥७७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
जातवेदो नि वर्तय शतं ते सन्त्वावृतः। सहस्रं त उपावृतस्ताभिर्नः पुनरा कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठजातऽवेद: । नि । वर्तय । शतम् । ते । सन्तु । आऽवृत: । सहस्रम् । ते । उपऽआवृत: । ताभि: । न: । पुन: । आ । कृधि ॥७७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(जातवेदः) हे उत्पन्न पदार्थों को जानने वाले परमेश्वर ! (निवर्तय) हमारे राग-द्वेष आदि की निवृत्ति कर, ताकि (शतम्)१ सौ (ते आवृतः) तेरे आगमन (सन्तु) हमारे हृदयों में हों। (ते) तेरे (सहस्रम्) हजारों (उपावृतः) हमारी उपासनाओं में समीप आगमन हों, (ताभिः) उन आगमनों और उपागगनों द्वारा (पुनः) बार बार (आ कृधि) आगमन और उपागमन कर।
टिप्पणी -
[१. ये दोनों पर “बहुत्व" के सूचक हैं।]