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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 95

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृग्वङ्गिरा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठौषधि सूक्त

    हि॑र॒ण्ययी॒ नौर॑चर॒द्धिर॑ण्यबन्धना दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ पुष्पं॑ दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्ययी॑ । नौ: । अ॒च॒र॒त् । हिर॑ण्यऽबन्धना । दि॒वि । तत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । पुष्प॑म् । दे॒वा: । कुष्ठ॑म् । अ॒व॒न्व॒त॒ ॥९५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्ययी नौरचरद्धिरण्यबन्धना दिवि। तत्रामृतस्य पुष्पं देवाः कुष्ठमवन्वत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्ययी । नौ: । अचरत् । हिरण्यऽबन्धना । दिवि । तत्र । अमृतस्य । पुष्पम् । देवा: । कुष्ठम् । अवन्वत ॥९५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 95; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (हिरण्ययी) सुवर्णमयी (हिरण्यबन्धना) सुवर्ण के रस्से से बन्धी हुई (नौः) नौका (दिवि) द्युलोक में (अचरत्) चली है, (तत्र) उस काल में (देवाः) देवों ने (अमृतस्य चक्षणम्) अमृत की दृष्टि के रूप में (पुष्पम्) फल को (कुष्ठम्) कूठ रूप (अवन्वत) याचित किया ।

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