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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 98/ मन्त्र 3
प्राच्या॑ दि॒शस्त्वमि॑न्द्रासि॒ राजो॒तोदी॑च्या दि॒शो वृ॑त्रहञ्छत्रु॒होसि॑। यत्र॒ यन्ति॑ स्रो॒त्यास्तज्जि॒तं ते॑ दक्षिण॒तो वृ॑ष॒भ ए॑षि॒ हव्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्राच्या॑: । दि॒श: । त्वम्। इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । राजा॑ । उ॒त । उदी॑च्या: । दि॒श: । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । श॒त्रु॒ऽह: । अ॒सि॒ । यत्र॑ । यन्ति॑ । स्रो॒त्या: । तत् । जि॒तम् । ते॒ । द॒क्षि॒ण॒त: । वृ॒ष॒भ: ।ए॒षि॒ । हव्य॑: ॥९८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राच्या दिशस्त्वमिन्द्रासि राजोतोदीच्या दिशो वृत्रहञ्छत्रुहोसि। यत्र यन्ति स्रोत्यास्तज्जितं ते दक्षिणतो वृषभ एषि हव्यः ॥
स्वर रहित पद पाठप्राच्या: । दिश: । त्वम्। इन्द्र । असि । राजा । उत । उदीच्या: । दिश: । वृत्रऽहन् । शत्रुऽह: । असि । यत्र । यन्ति । स्रोत्या: । तत् । जितम् । ते । दक्षिणत: । वृषभ: ।एषि । हव्य: ॥९८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 98; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे सम्राट् ! (त्वम्) तू (प्राच्याः दिशः) पूर्व दिशा का (राजा असि) राजा है, (वृत्रहन्) हे वृत्रों अर्थात् घेरा डालने वालों का हनन करने वाले (उत) और तू (उदीच्याः दिशः) उत्तर की दिशा के (शत्रुहः असि) शत्रुओं का हनन करने वाला है। (यत्र) जिस ओर (स्रोत्याः) प्रस्रवनशील जलप्रवाह (यन्ति) जाते हैं, प्रवाहित होते हैं (तत्) वह भी (ते) तेरा (जितम्) जीता दुआ है, (हव्यः) हम द्वारा आहूत अर्थात् व्यामन्त्रित हुआ तू (वृषभः) वर्षा करने वाले मेघ के सदृश सुखों की वर्षा करता हुआ, (दक्षिणतः) दक्षिण प्रदेश से (एषि) तू आता है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में पूर्व और उत्तर दिशाओं का वर्णन स्वशब्दों द्वारा हुआ है। पृथिवी के पश्चिम तथा दक्षिण दिशाओं का कथन "यत्र यन्ति स्रोत्या:" द्वारा किया है। पृथिवी की नदियों के प्रवाह प्रायः पश्चिम तथा दक्षिण के समुद्रों में होते हैं। इन्हें भी इन्द्र ने जीत लिया है। वर्षा ऋतु में मेघ पश्चिम तथा दक्षिण के समुद्रों से ही उठते हैं। इन्द्र अर्थात् सम्राट् को राजधानी भी दक्षिण में होनी चाहिये ऐसा निर्देश मन्त्र द्वारा मिलता है, जहां से कि सम्राट् आमन्त्रित होने पर आता है। इन्द्र अर्थात् मेघीय-विद्युत् भी दक्षिण दिशा से मेघ के साथ आती है। इन्द्र समग्र पृथिवी का सम्राट् प्रतीत होता है, तभी इसे "अधिराजः, और राजसु राजयातै" द्वारा वर्णित किया है। वस्तुतः इन मन्त्रों में इन्द्र है इन्द्रेन्द्र। इन्द्रेन्द्र को ही संक्षेप में इन्द्र कहा है। जैसे कि देवदत्त को देव या दत्त कह दिया जाता है। इसी अभिप्राय को दृष्टिगत कर कहा है कि "कुत्स्नं भूमण्डलं त्वदायत्तमेवेत्यर्थः (सायण)। भूमण्डलव्यापी राज्यवालों को "चक्रवर्ती राजा" कहते हैं। अथर्ववेद में चक्रवर्ती राजा को "इन्द्रेन्द्र" कहा है। यथा “इन्द्रेन्द्र मनुष्या१ ३: परेहि" (अथर्व० ३।४।६)। इन्द्रेन्द्र:= इन्द्राणामिन्द्र। सम्राटों का सम्राट् ! ऐसा ही अभिप्राय (अथर्व० ३।४।१-७) के मन्त्रों में प्रकट होता है]। मनुष्यान अथवा मनुष्याः= हे मनुष्य ! (इन्द्रेन्द्र)।] [१. अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा में पाठ है, "मनुष्य"। इससे इन्द्रेन्द्र को मनुष्य कहा है। "मनुष्याः" पाठ अर्थसङ्गत नहीं होता। सायणाचार्य को भी "मनुष्याः" पाठ संगत नहीं प्रतीत हुआ, अतः उस ने मनुष्याः का अर्थ किया है "मनुष्यान्", तथा "यद्वा मनोरपत्यभूताः प्रजाः"। अथवा "मनुष्याः विशः"।]