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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
याव॑न्तो मा स॒पत्ना॑नामा॒यन्तं॑ प्रति॒पश्य॑थ। उ॒द्यन्त्सूर्य॑ इव सु॒प्तानां॑ द्विष॒तां वर्च॒ आ द॑दे ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑न्त: । मा॒ । स॒ऽपत्ना॑नाम् । आ॒ऽयन्त॑म् । प्र॒ति॒ऽपश्य॑थ । उ॒त्ऽयन् । सूर्य॑:ऽइव । सु॒प्ताना॑म् । द्वि॒ष॒ताम् । वर्च॑: । आ । द॒दे॒ ॥१४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यावन्तो मा सपत्नानामायन्तं प्रतिपश्यथ। उद्यन्त्सूर्य इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आ ददे ॥
स्वर रहित पद पाठयावन्त: । मा । सऽपत्नानाम् । आऽयन्तम् । प्रतिऽपश्यथ । उत्ऽयन् । सूर्य:ऽइव । सुप्तानाम् । द्विषताम् । वर्च: । आ । ददे ॥१४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सपत्नानाम्) शत्रुओं में से (यावन्तः) जितने तुम (आयन्तम्) आते हुए (मा) मुझ को (प्रतिपश्यथ) प्रतिकूल रूप में देखते हो, उन (द्विषताम्) द्वेष करने वालों के (वर्चः) प्रभावविशेष का (आ ददे) में अपहरण करता हूँ, (इव) जैसे कि (उद्यन सूर्यः) उदय को प्राप्त होता हुआ सूर्य (सुप्तानाम्) सोए हुओं के वर्चस् का अपहरण करता है।
टिप्पणी -
[अभिप्राय पूर्वगत मन्त्रवत् है। “आयन्तम् मा" द्वारा सम्भवतः संसद् के अधिवेशन में आते हुए सभापति का निर्देश हुआ है। अथवा इन दोनों मन्त्रों में यह इन्द्र अर्थात् सम्राट का कथन हुआ है। इन्द्र अर्थात् सम्राट् (सूक्त १३।३)। मन्त्र में यह भी दर्शाया है कि सूर्य के उदय काल में सोए हुओं का वर्चस नष्ट हो जाता है। यह काल सन्ध्याकाल है, सोए रहने का काल नहीं]।