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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रध्नः, उषाः
छन्दः - द्विपदैकावसाना विराड्गायत्री
सूक्तम् - ज्योति सूक्त
अ॒यं स॒हस्र॒मा नो॑ दृ॒शे क॑वी॒नां म॒तिर्ज्योति॒र्विध॑र्मणि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स॒हस्र॑म् । आ । न॒: । दृ॒शे । क॒वी॒नाम् । म॒ति: । ज्योति॑: । विऽध॑र्मणि॥ २३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं सहस्रमा नो दृशे कवीनां मतिर्ज्योतिर्विधर्मणि ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । सहस्रम् । आ । न: । दृशे । कवीनाम् । मति: । ज्योति: । विऽधर्मणि॥ २३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अयम्) यह परमेश्वर (कवीनाम्, मतिः) कवियों की मतिरूप है, और (विधर्मणि) विविध प्रकार धारण करने वाली वस्तुओं में (सहस्रम् ज्योतिः) हजार ज्योतिरूप है, वह (आ नः) पूर्णतया हमारे (दृशे) दृष्टिगोचर हुआ है।
टिप्पणी -
[परमेश्वर कवि है, वेद उस के काव्य हैं, वह आदि कवि है, उससे पूर्व कोई कवि नहीं हुआ, कविता करने की मति उसी ने दी, अतः वह कवि के लिये मतिरूप है। ब्रह्माण्ड में धारक वस्तुएं हजारों हैं; सूर्य, चन्द्र अग्नि विद्युत्, नक्षत्र और तारागण असंख्य हैं। परमेश्वर इन हजारों ज्योतियों में चमकता है। परन्तु वह है एकज्योतिरूप ही "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" (मुण्डक २।१०)। वह परमेश्वर जिसे कि सूक्त (२२) में अतिथि कहा है, हम कवियों में वह पूर्णतया दृष्टिगोचर हो गया है]।