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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
शि॒वास्त॒ एका॒ अशि॑वास्त॒ एकाः॒ सर्वा॑ बिभर्षि सुमन॒स्यमा॑नः। ति॒स्रो वाचो॒ निहि॑ता अ॒न्तर॒स्मिन्तासा॒मेका॒ वि प॑पा॒तानु॒ घोष॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वा: । ते॒ । एका॑: । अशि॑वा: । ते॒ । एका॑: । सर्वा॑: । बि॒भ॒र्षि॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑न: । ति॒स्र:। वाच॑: । निऽहि॑ता । अ॒न्त: । अ॒स्मिन् । तासा॑म् । एका॑ । वि । प॒पा॒त॒ । अनु॑ । घोष॑म् ॥४४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवास्त एका अशिवास्त एकाः सर्वा बिभर्षि सुमनस्यमानः। तिस्रो वाचो निहिता अन्तरस्मिन्तासामेका वि पपातानु घोषम् ॥
स्वर रहित पद पाठशिवा: । ते । एका: । अशिवा: । ते । एका: । सर्वा: । बिभर्षि । सुऽमनस्यमान: । तिस्र:। वाच: । निऽहिता । अन्त: । अस्मिन् । तासाम् । एका । वि । पपात । अनु । घोषम् ॥४४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
[हे पुरुष !] (ते) तेरी (एक) एक प्रकार की [वाचः] वाणियाँ (शिवाः) कल्याणमयी हैं, (ते) तेरी (एकाः) अन्य प्रकार की वाणियां (अशिवाः) अकल्याणरूप हैं; (सुमनस्यमानः) सुप्रसन्न हुआ (सर्वाः) उन सब वाणियों को (बिभर्षि) तू अपने में धारण करता है। (अस्मिन् अन्तः) इस पुरुष के भीतर (तिस्रः वाचः निहिताः) तीन वाणियां निहित रहती हैं, (तासाम्) उन में से (एका) एक वाणी (घोषम् अनु) ध्वनि के साथ (विपपात) बाहिर गिरती है।
टिप्पणी -
[सायण ने चार वाणियों का निर्देश मन्त्र व्याख्या में किया है– परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। और इनकी विस्तृत व्याख्या भी की है। मन्त्र के तीसरे पाद में "तिस्रः वाचः" द्वारा पुरुष में तीन वाणियों का निधान अर्थात् स्थिति कही है, और उनमें से एक "ध्वनि" रूप वाणी का मुख से पतन कहा है। वाणी "संस्कार रूप" में चित्त में निहित रहती है। यह "संस्कारमयी" वाणी है। यह संस्कारमयी वाणी पदवाक्यरूप में बोलते समय, प्रथम चित्त में स्थित होती है, प्रकट होती है। इसका उच्चारण करे या न करे, वक्ता की इच्छा पर निर्भर होता है। परन्तु जब वह बोलता है तो चित्तस्थ वाणी ध्वनि के साथ मुख से गिरती है। इस तृतीयावस्था की वाणी को "वैखरी" कहते हैं। वैखरी वाणी तालु, ओष्ठ आदि स्थानों में अभिव्यक्त हुई मुख द्वारा उच्चारित होती है। चित्तस्थ वाणी "पश्यन्ती" है, इसकी स्थिति को पुरुष विना मुख द्वारा उच्चारण किये भी जान रहा होता है। संस्कारमयी वाणी "परावाणी" है, जो कि वक्ता की इच्छा के विना चित्त में भी अभिव्यक्त नहीं होती। इन अन्त की द्विविध वाणियों का सम्बन्ध तालु-ओष्ठ आदि के साथ नहीं होता। मन्त्र में "मध्यमा" वाणी का प्रसंग नहीं। यद्यपि "चत्वारि वाक् परिमिता पदानि" (अथर्व० ९।१५।२७) चतुर्विध वाक्-पदों का कथन हुआ है]।