Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रस्कण्वः
देवता - भेषजम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ईर्ष्यानिवारण सूक्त
जना॑द्विश्वज॒नीना॑त्सिन्धु॒तस्पर्याभृ॑तम्। दू॒रात्त्वा॑ मन्य॒ उद्भृ॑तमी॒र्ष्याया॒ नाम॑ भेष॒जम् ॥
स्वर सहित पद पाठजना॑त् । वि॒श्व॒ऽज॒नीना॑त् । सि॒न्धु॒त: । परि॑ । आऽभृ॑तम् । दू॒रात् । त्वा॒ । म॒न्ये॒ । उत्ऽभृ॑तम् । ई॒र्ष्याया॑: । नाम॑ । भे॒ष॒जम् ॥४६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
जनाद्विश्वजनीनात्सिन्धुतस्पर्याभृतम्। दूरात्त्वा मन्य उद्भृतमीर्ष्याया नाम भेषजम् ॥
स्वर रहित पद पाठजनात् । विश्वऽजनीनात् । सिन्धुत: । परि । आऽभृतम् । दूरात् । त्वा । मन्ये । उत्ऽभृतम् । ईर्ष्याया: । नाम । भेषजम् ॥४६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(विश्वजनीनात् जनात्) सब जनों का हित करने वाले जन से, तथा (सिन्धुतः परि) सिन्धु से (आभृतम्) लाई गई, तथा (दूरात्) दूर के स्थान से भी (उद्भृतम्) पृथिवी से उद्धृत की गई (त्या) तुझ को (ईर्ष्यायाः) ईर्ष्या का (भेषजम्, नाम) प्रसिद्ध औषध (मन्ये) मैं मानता हूं।
टिप्पणी -
[सर्वहितकारी वैद्य से लाई गई ओषधि, या सर्वहितकारी योगी महात्मा से प्राप्त आध्यात्मिक मानसिक अनुशासन; तथा सिन्धु से प्राप्त सैन्धव आदि; तथा पृथिवी को खोदकर प्राप्त खनिज पदार्थ, तथा वानस्पतिक जड़, ईर्ष्यावृत्ति की औषध है। वैद्य से प्राप्त दवाई, या योगी महात्मा से प्राप्त मानसिक अनुशासन, ईर्ष्या को दूर कर सकते हैं। ईर्ष्या मानसिक रोग है जो कि हितकारी वैद्य द्वारा प्रदत्त औषधि से शान्त हो सकता है। यह ईर्ष्या मानसिक-वृत्ति है जो कि अन्य मानसिक वृत्तियों के निरोध के सदृश, योगोपायों द्वारा निरुद्ध हो सकती है, और इस प्रक्रिया को योगीजन दर्शा सकते हैं। ईर्ष्या के निरोध के लिये सिन्धु से, तथा पृथिवी से भी उद्धृत औषधों का प्रयोग करना चाहिये। मन्त्र में किसी विशिष्ट औषध का नाम नहीं लिया। केवल औषध प्राप्ति के उपाय तथा साधन दर्शा दिये हैं। प्रत्येक रोगी के निज स्वभाव तथा मानसिक लक्षणों के अनुसार एक ही रोग के लिये औषधि भिन्न-भिन्न हो जाती है। इसलिये मन्त्रों में प्रायः साधनों का निर्देश किया जाता है किसी विशिष्ट औषध का नहीं।]