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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
यास्ते॑ राके सुम॒तयः॑ सु॒पेश॑सो॒ याभि॒र्ददा॑सि दा॒शुषे॒ वसू॑नि। ताभि॑र्नो अ॒द्य सु॒मना॑ उ॒पाग॑हि सहस्रापो॒षं सु॑भगे॒ ररा॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ते॒ । रा॒के॒ । सु॒ऽम॒तय॑: । सु॒ऽपेश॑स: । याभि॑: । ददा॑सि । दा॒शुषे॑ । वसू॑नि । ताभि॑: । न॒: । अ॒द्य । सु॒ऽमना॑: । उ॒प॒ऽआग॑हि । स॒ह॒स्र॒ऽपो॒षम् । सु॒ऽभ॒गे॒ । ररा॑णा॥५०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि। ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रापोषं सुभगे रराणा ॥
स्वर रहित पद पाठया: । ते । राके । सुऽमतय: । सुऽपेशस: । याभि: । ददासि । दाशुषे । वसूनि । ताभि: । न: । अद्य । सुऽमना: । उपऽआगहि । सहस्रऽपोषम् । सुऽभगे । रराणा॥५०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(राके) हे दानशीले देवपत्नी ! (याः ते) जो तेरी (सुमतयः) उत्तम मतियां हैं, जोकि (सुपेशसः) घर को सुन्दर रूप में रखतीं, और (याभिः) जिन सुमतियों द्वारा प्रेरित हुई तू (दाशुषे) दानी मनुष्यों को (वसूनि) नानाविध धन (ददासि) देती है, (ताभिः) उन सुमतियों के संग, (सुमनाः) प्रसन्नचित्त वाली तू, (अद्य) आज (नः उपागहि) हमारे समीप आ, (सुभगे) हे उत्तमेश्वर्यों से सम्पन्ने ! (सहस्रापोषम्) हजारों को पोषकधन (रराणा) देती हुई।
टिप्पणी -
[राका सम्पत्तिशालिनी है, और दानशीला है। सुमति द्वारा प्रेरित हुई यह दान और महादान भी करती है। सदा प्रसन्न रहती। इसे सामाजिक हित के लिये निमन्त्रित किया है। इन मन्त्रों में "अनुमति" का वर्णन नहीं हुआ यह भी देवपत्नी है, और याज्ञिकों के अनुसार इस का सम्बन्ध चन्द्रमा के साथ है।]