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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
सूक्त - भृगुः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मार्गस्वस्त्य अयन सूक्त
ऋचं॒ साम॒ यदप्रा॑क्षं ह॒विरोजो॒ यजु॒र्बल॑म्। ए॒ष मा॒ तस्मा॒न्मा हिं॑सी॒द्वेदः॑ पृ॒ष्टः श॑चीपते ॥
स्वर सहित पद पाठऋच॑म् । साम॑ । यत् । अप्रा॑क्षम् । ह॒वि: । ओज॑: । यजु॑: । बल॑म् । ए॒ष: । मा॒ । तस्मा॑त् । मा । हिं॒सी॒त् । वेद॑: । पृ॒ष्ट: । श॒ची॒ऽप॒ते॒ ॥५७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचं साम यदप्राक्षं हविरोजो यजुर्बलम्। एष मा तस्मान्मा हिंसीद्वेदः पृष्टः शचीपते ॥
स्वर रहित पद पाठऋचम् । साम । यत् । अप्राक्षम् । हवि: । ओज: । यजु: । बलम् । एष: । मा । तस्मात् । मा । हिंसीत् । वेद: । पृष्ट: । शचीऽपते ॥५७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(ऋचम्, साम) ऋग्वेद और सामवेद से (यत्) जो (हविः, ओजः) हवि और ओज के सम्बन्ध में, और (यजुः) यजुर्वेद से (बलम्) बल के सम्बन्ध में, (अप्राक्षम्) मैंने पूछा है, (तस्मात्) उस पूछने के कारण (पृष्टः) पूछा गया (एषः वेदः) यह वेद (मा) मुझे (मा) न (हिंसीत्) हिंसित करे (शचीपते) हे वेदवाक् के स्वामी परमेश्वर ! शची वाङ्नाम (निघं० १।११)।
टिप्पणी -
[स्वर और वर्ण का ठीक ध्यान कर वेद के स्वाध्याय द्वारा यज्ञिय हवि१, ओज और बल आदि का यथार्थज्ञान हो सकता है। परन्तु विपरीत स्वाध्याय द्वारा अयथार्थ ज्ञान होने पर स्वाध्यायी की मानो हिंसा होती है। यथा "दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो म तमर्थमाह। स वाग् वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्"। वेद से पूछने का अभिप्राय है, वेद स्वाध्याय द्वारा ज्ञेय का ज्ञान साक्षात् वेद से ही प्राप्त करना। वेद तो काव्य है, अतः काव्य की रीति से वेद में वस्तुवर्णन होता है]। [१. ऋग्वेद के याज्यामन्त्रों द्वारा हविः की आहुति दी जाती है, सामगान के लिये ओजस् की आवश्यकता है और याज्ञिक क्रियाओं के सम्पादक यजुर्वेद से बल की आवश्यकता है। यह बल है शारीरिकबल, और ओजस् है प्राणवल। याज्ञिक क्रियाएं यथा “वेदि के लिये भूमिपरिष्कार, वेदिनिर्माण के लिये मिट्टी लाना और परिमाणानुसार वेदि की रचना, आज्य के लिये गोदोहन तथा पुरोडाश और हवि के लिये शारीरिक व्रीहि-अवहनन आदि यजुर्वेद की क्रियाएं हैं, इत्यादि अन्य क्रियाओं के लिये शारीरिक बल की आवश्यकता है, अतः इस बल का सम्बन्ध यजुर्वेद के साथ दर्शाया है। अप्राक्षम्= प्रच्छ ज्ञीप्सायाम् (तुदादिः)। ज्ञीप्सा= जानने की इच्छा। प्रत्येक व्यक्ति को हविः आदि के ज्ञान के लिये ऋग्वेदादि को स्वयं पढ़ने की इच्छा "अप्राक्षम्" द्वारा प्रकट की गई है]।