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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगुः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराट्परोष्णिक्
सूक्तम् - मार्गस्वस्त्य अयन सूक्त
ये ते॒ पन्था॑नोऽव दि॒वो येभि॒र्विश्व॒मैर॑यः। तेभिः॑ सुम्न॒या धे॑हि नो वसो ॥
स्वर सहित पद पाठये । ते॒ । पन्था॑न: । अव॑ । दि॒व: । येभि॑: । विश्व॑म् । ऐर॑य: । तेभि॑: । सु॒म्न॒ऽया । आ । धे॒हि॒ । न॒: । व॒सो॒ इति॑ ॥५७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ते पन्थानोऽव दिवो येभिर्विश्वमैरयः। तेभिः सुम्नया धेहि नो वसो ॥
स्वर रहित पद पाठये । ते । पन्थान: । अव । दिव: । येभि: । विश्वम् । ऐरय: । तेभि: । सुम्नऽया । आ । धेहि । न: । वसो इति ॥५७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(वसो) हे वसाने वाले ! (ये ते पन्थानः) जो तेरे मार्ग (दिवः) द्युलोक के (अव) अवस्तात् अर्थात् अधोदेश में हैं, (येभिः) जिन द्वारा (विश्वम्) सब सौर परिवार को (ऐरयः) तू प्रेरणा दे रहा है, (तेभिः) उन मार्गों द्वारा (नः) हमें (सुम्नया) सुख में (धेहि) स्थापित कर।
टिप्पणी -
[अव दिवः = शतपथब्राह्मण के “अग्निचयन" प्रकरण में "विराजं दिवम्" को पञ्चमी चिति कहा है, और इस के नीचे "ऊर्ध्वमन्तरिक्षात् अर्वाचीनं दिवः” द्वारा आदित्य और आदित्य-परिवार को चतुर्थी चिति कहा है, जिसे कि व्याख्येयमन्त्र में "अव दिवः" कहा है। इस समग्र आदित्य परिवार (solar system) की प्रेरणा वसुनामक परमेश्वर करता है, जिसे कि मन्त्र (१) में शचीपति" भी कहा है। शची का अर्थ “कर्म" भी है, यथा “शची कर्मनाम" (निघं० २।१)। मन्त्र में “ऐरयः" द्वारा प्रेरणा का कथन हुआ है, अतः प्रेरक को कर्माधिपति होना चाहिये। पांच चितियों का वर्णन मत्कृत "शतपथस्थ अग्निचयन समीक्षा" में निम्न प्रकार है। यथा प्रथमा चितिः पृ० ६३; द्वितीया चितिः पृ० १०४; तृतीया चितिः पृ० ११५; चतुर्थी चितिः पृ० १२४; पञ्चमी चितिः पृ० १५०। चतुर्थी चिति को "अवदिवः" कहा है। इस चतुर्थी चिति का सम्बन्ध अस्मदादि प्राणियों के साथ है। सुम्नया= सुम्ने, सप्तमी के स्थान में याच् आदेश। सुम्नम् सुखनाम (निघं० ३।६)। सुम्नम्= जिस द्वारा मन सुप्रसन्न होता है, वह सुख है]।