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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
सर॑स्वति व्र॒तेषु॑ ते दि॒व्येषु॑ देवि॒ धाम॑सु। जु॒षस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि ररास्व नः ॥
स्वर सहित पद पाठसर॑स्वति । व्र॒तेषु॑ । ते॒ । दि॒व्येषु॑ । दे॒वि॒ । धाम॑ऽसु । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । आऽहु॑तम् । प्र॒ऽजाम् । दे॒वि॒ । र॒रा॒स्व॒ । न॒: ॥७०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सरस्वति व्रतेषु ते दिव्येषु देवि धामसु। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि ररास्व नः ॥
स्वर रहित पद पाठसरस्वति । व्रतेषु । ते । दिव्येषु । देवि । धामऽसु । जुषस्व । हव्यम् । आऽहुतम् । प्रऽजाम् । देवि । ररास्व । न: ॥७०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(सरस्वति देवि) हे ज्ञान-विज्ञान वाली देवि ! (ते) तेरे (दिव्येषु वामसु) दिव्य स्थानों अर्थात् विद्यालयों में, तथा (व्रतेषु) सारस्वत-व्रतों में (आहुतम्, हव्यम्ः) आहुतियों में दी हवि को (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक तू स्वीकार कर, (देवि) और हे देवी! (नः) हमें (प्रजाम्) विद्यार्थीरूपी सन्तानें (ररास्व) प्रदान कर।
टिप्पणी -
[सरस्वती = सरो विज्ञानं तद्वती, ज्ञान-विज्ञानवाली वेदवाक्। (धामसु= धामानि त्रयाणि भवन्ति, स्थानानि नामानि जन्मानि (निरुक्त ९।२८)। यहाँ स्थानार्थ का ग्रहण है, विद्यालयों और महाविद्यालयों के स्थान। विद्यालयों और महाविद्यालयों के सत्रारम्भ में सारस्वत-यज्ञ होना चाहिये, जिस में विद्यार्थियों को विद्याप्राप्ति तथा गुरुसेवा आदि सम्बन्धी व्रत ग्रहण करने चाहियें। गुरुवर्ग इन्हें व्रत ग्रहण कराएं। गुरुवर्ग भी प्रविष्ट विद्यार्थियों के साथ निज प्रजा अर्थात् सन्तानों का सा व्यवहार करें। विद्यालयों और महाविद्यालयों को दिव्यधाम जान कर इन की पवित्रता को बनाए रखना चाहिये। यह सरस्वती नदीरूपा नहीं, अपितु वाग्-रूपा है। सरो विज्ञानं विद्यतेऽस्यां सा सरस्वती वाक् (उणा० ४।१९०, दयानन्द)। परन्तु आहुतियां वागधिपति-परमेश्वरोद्देश्यक हैं। वह वेदवाक् का अधिपति है]।