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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
श्रा॒तं ह॒विरो ष्वि॑न्द्र॒ प्र या॑हि ज॒गाम॒ सूरो॒ अध्व॑नो॒ वि मध्य॑म्। परि॑ त्वासते नि॒धिभिः॒ सखा॑यः कुल॒पा न व्रा॑जप॒त चर॑न्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रा॒तम् । ह॒वि: । ओ इति॑ । सु । इ॒न्द्र॒ । प्र । या॒हि॒ । ज॒गाम॑ । सूर॑: । अध्व॑न: । वि । मध्य॑म् । परि॑ । त्वा॒ । आ॒स॒ते॒ । नि॒धिऽभि॑: । सखा॑य: । कु॒ल॒ऽपा: । न । व्रा॒ज॒ऽप॒तिम् । चर॑न्तम् ॥७५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रातं हविरो ष्विन्द्र प्र याहि जगाम सूरो अध्वनो वि मध्यम्। परि त्वासते निधिभिः सखायः कुलपा न व्राजपत चरन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रातम् । हवि: । ओ इति । सु । इन्द्र । प्र । याहि । जगाम । सूर: । अध्वन: । वि । मध्यम् । परि । त्वा । आसते । निधिऽभि: । सखाय: । कुलऽपा: । न । व्राजऽपतिम् । चरन्तम् ॥७५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(हविः) हविष्यान्न (श्रातम्) पक गया है, (इन्द्र) हे सम्राट् (उ, सु, प्र= आ याहि=प्रायाहि) निश्चय से सुगमतापूर्वक आइये, (सूरः) सूर्य (अध्वनः) प्रकाशमार्ग के (विमध्यम्) मध्य के समीप (जगाम) पहुंच गया है, अर्थात् भोजन का मध्याह्न काल होने वाला है। (सखायः) आमन्त्रित मित्र (निधिभिः) उपहारों अर्थात् भेंटो के साथ (त्वा) तेरे भोजनासन के (परि) चारों ओर (आसते) उपविष्ट हैं, बैठे हुए हैं, (न) जैसे कि (चरन्तम्) भोजन करते हुए (व्राजपतिम्) गृहपति के चारों ओर (कुलपाः) कुलरक्षक पारिवारिक जन उपविष्ट होते हैं।
टिप्पणी -
[भोज्य-पदार्थ को हवि कहा है, क्योंकि उस द्वारा बलिप्रदान तथा बलि-वैश्वदेव-यज्ञ में आहुतियां दी जाती हैं, अथवा "हविः" = हु दानादनयोः (जुहोत्यादिः), अर्थात् अदन योग्य अन्न के परिपक्व होने की सूचना हविः पद द्वारा दी गई है। मन्त्र में मध्याह्न-काल के भोजनकाल को सूचित किया गया है। इन्द्र है सम्राट् यथा “इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। सखा है आमन्त्रित वरुण नामक राजा लोग, या नागरिक सदस्य अथवा उभयविध। चरन्तम्= चर गतिभक्षणयोः (भ्वादिः); यहां "चर" भक्षणार्यक है। मन्त्र में यह भी दर्शाया है कि यदि किसी व्यक्ति को मिलने जाना हो तो कुछ भेंट लेकर जाना चाहिये]।