अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - जायान्यः, इन्द्रः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
वि॒द्म वै ते॑ जायान्य॒ जानं॒ यतो॑ जायान्य॒ जाय॑से। क॒थं ह॒ तत्र॒ त्वं ह॑नो॒ यस्य॑ कृ॒ण्मो ह॒विर्गृ॒हे ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म । वै । ते॒ । जा॒या॒न्य॒ । जान॑म् । यत॑: । जा॒या॒न्य॒ । जाय॑से । क॒थम् । ह॒ । तत्र॑ । त्वम् । ह॒न॒: । यस्य॑ । कृ॒ण्म: । ह॒वि: । गृ॒हे ॥८१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्म वै ते जायान्य जानं यतो जायान्य जायसे। कथं ह तत्र त्वं हनो यस्य कृण्मो हविर्गृहे ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म । वै । ते । जायान्य । जानम् । यत: । जायान्य । जायसे । कथम् । ह । तत्र । त्वम् । हन: । यस्य । कृण्म: । हवि: । गृहे ॥८१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
हे जायान्य ! इस निश्चय से तेरे जन्म को जानते हैं, जहां से हे जायान्य! तू जन्म लेता है पैदा होता है। उसे१ कैसे तू हनन करे, जिसके गृह में हम हृविः [प्रदान] करते हैं।
टिप्पणी -
[जायान्य=जाया के अतिभोग से उत्पन्न क्षय रोग। अग्नि में यक्ष्मनिवर्तक ओषधियों की आहुतियों से उत्पन्न धूम के सूंघने से क्षय रोग या यक्ष्मा की निवृत्ति शीघ्र हो जाती है। ओषधियों से उत्पन्न धूम, सूंघने द्वारा, ओषधि-धूम फेफड़ों में जाकर रक्त को ओषधि युक्त कर शरीरस्थ रोग का शीघ्र शमन कर देता है, ओषधि के खाने से रोगशमन देर से होता है। जायान्यः= जायायाः आनेयः, अथवा जायायाः जन्यः, "जकार" का लोप, क्षयरोग, यक्ष्मरोग]। [१. अथवा उस घर में तू किसी को भी कैसे मारे जिस के कि घर में हम हवि प्रदान करते हैं।]