अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - जायान्यः, इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
धृ॒षत्पि॑ब क॒लशे॒ सोम॑मिन्द्र वृत्र॒हा शू॑र सम॒रे वसू॑नाम्। माध्य॑न्दिने॒ सव॑न॒ आ वृ॑षस्व रयि॒ष्ठानो॑ र॒यिम॒स्मासु॑ धेहि ॥
स्वर सहित पद पाठधृ॒षत् । पि॒ब॒ । क॒लशे॑ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । शू॒र॒ । स॒म्ऽअ॒रे । वसू॑नाम् । माध्यं॑दिने । सव॑ने । आ । वृ॒ष॒स्व॒ । र॒यि॒ऽस्थान॑: । र॒यिम् । अ॒स्मासु॑ । धे॒हि॒ ॥८१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
धृषत्पिब कलशे सोममिन्द्र वृत्रहा शूर समरे वसूनाम्। माध्यन्दिने सवन आ वृषस्व रयिष्ठानो रयिमस्मासु धेहि ॥
स्वर रहित पद पाठधृषत् । पिब । कलशे । सोमम् । इन्द्र । वृत्रऽहा । शूर । सम्ऽअरे । वसूनाम् । माध्यंदिने । सवने । आ । वृषस्व । रयिऽस्थान: । रयिम् । अस्मासु । धेहि ॥८१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे जीवात्मन् ! (धृषत्) कामादि वासनाओं का धर्षण करता हुआ, (कलशे) शरीररूपी कलश में स्थित (सोमम्) वीर्य का (पिब) तू पान कर, (वृत्रहा) तू ने वृत्र भावनाओं का हनन कर दिया है, (शूर) हे शूर! हे पराक्रमशील ! (वसूनाम्) श्रेष्ठगुणों की प्राप्ति के (समरे) देवासुर संग्राम के निमित्त [तू पराक्रम कर]। (माध्यन्दिने) मध्याह्न काल के (सवने) सवन में (आ वृषस्व) शरीर में सोम सींच, (रयिष्ठानः) और सद्गुणरूपी सम्पत्तियों का तू अधिष्ठान बन, और (अस्मासु) हम में (रयिम्) सद्गुण सम्पत्ति (धेहि) धारण करा।
टिप्पणी -
["पुरुष निश्चय से यज्ञरूप है। २४ वर्षों की आयु तक उस का प्रातः सवन है। ४४ वर्षों की आयु तक उसका माध्यन्दिन सवन है; और ४८ वर्षों की आयु तक उसका तृतीय सवन है। इन आयुकालों में यदि उसे कामवासना आदि दुर्भावनाए प्रतप्त करें, सताए तो वह सद्गुणों का संकल्प करता हुआ, इस यज्ञमय जीवन का विलोप न करे" (यह संक्षिप्त भाव प्रदर्शित किया है, छान्दोग्य उपनिषद् के सन्दर्भ का; छान्दोग्य ३।१६)। व्याख्येय मन्त्र में "माध्यन्दिन सवन" का कथन हुआ है। जीवनयज्ञ में "माध्यन्दिनकाल" है ४४ वर्षों की आयु का काल, जब कि कामादि दुर्व्यसन व्यक्ति को संतप्त कर सकते हैं, और "देवासुर-समर" में देव विजयी होते हैं या असुर यह संशयास्पद हो जाता है। जायान्य रोगाक्रान्त व्यक्ति के जायान्य-दुष्परिणामों का हनन मन्त्र ४, ५ द्वारा हो गया है। तदनन्तर मन्त्र में रोगरहित हुए व्यक्ति की आत्मशक्ति को उद्-बोधित कर, अवशिष्ट जीवन में, उसे देवासुर संग्राम के लिये संनद्ध किया है। मन्त्र में सोम है वीर्य। उसका पान है "उर्ध्वरेतस्" होना। सोम है वीर्य-- इसकी लिये देखो। ग्रन्थकार का अथर्ववेदभाष्य (१४।१।१-५)। सोमाः = सोमन् ("मन्" प्रत्ययान्त +"सु”) जिस का अर्थ है उत्पत्ति। अंग्रेजी भाषा में वीर्य को "semen" कहते हैं। सोमन् और semen में श्रुतिसाम्य भी है, और अर्थसाम्य भी]।