अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - अपचिद् भैषज्यम्
छन्दः - परोष्णिक्
सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
या ग्रैव्या॑ अप॒चितोऽथो॒ या उ॑पप॒क्ष्याः। वि॒जाम्नि॒ या अ॑प॒चितः॑ स्वयं॒स्रसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ग्रैव्या॑: । अ॒प॒ऽचित॑: । अथो॒ इति॑ । या: । उ॒प॒ऽप॒क्ष्या᳡: । वि॒ऽजाम्नि॑ । या: । अ॒प॒ऽचित॑: । स्व॒य॒म्ऽस्रस॑: ॥८०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
या ग्रैव्या अपचितोऽथो या उपपक्ष्याः। विजाम्नि या अपचितः स्वयंस्रसः ॥
स्वर रहित पद पाठया: । ग्रैव्या: । अपऽचित: । अथो इति । या: । उपऽपक्ष्या: । विऽजाम्नि । या: । अपऽचित: । स्वयम्ऽस्रस: ॥८०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(याः) जो (ग्रैव्याः) ग्रीवा में उत्पन्न (अपचितः) गण्डमालाएं हैं, (अथो) तथा (याः) जो (उपपक्ष्याः) पक्ष अर्थात् कोख के समीप उत्पन्न हैं, (याः) जो (अपचितः) गण्डमालाएं (विजाम्नि) अपत्योत्पत्ति स्थान के समीप अर्थात् उरुओं की सन्धियों में उत्पन्न हुई हैं, वे (स्वयंस्रसः) स्वयं स्रवित हो जांय।
टिप्पणी -
[स्वयंस्रसः = किसी प्राकृतिक औषध के विना, केवल मनोबल तथा हस्तस्पर्श द्वारा गण्डमाला की ग्रन्थियों का स्राव होकर सूख जाना (अथर्व० ४,१३,५,६,७)]।