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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 78/ मन्त्र 2
अ॒स्मै क्ष॒त्राणि॑ धा॒रय॑न्तमग्ने यु॒नज्मि॑ त्वा॒ ब्रह्म॑णा॒ दैव्ये॑न। दी॑दि॒ह्यस्मभ्यं॒ द्रवि॑णे॒ह भ॒द्रं प्रेमं वो॑चो हवि॒र्दां दे॒वता॑सु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । क्ष॒त्राणि॑ । धा॒रय॑न्तम् । अ॒ग्ने॒ । यु॒नज्मि॑ । त्वा॒ । ब्रह्म॑णा । दैव्ये॑न । दी॒दि॒हि । अ॒स्मभ्य॑म् । द्रवि॑णा । इ॒ह । भ॒द्रम् । प्र । इ॒मम् । वो॒च॒: । ह॒वि॒:ऽदाम् । दे॒वता॑सु ॥८३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मै क्षत्राणि धारयन्तमग्ने युनज्मि त्वा ब्रह्मणा दैव्येन। दीदिह्यस्मभ्यं द्रविणेह भद्रं प्रेमं वोचो हविर्दां देवतासु ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । क्षत्राणि । धारयन्तम् । अग्ने । युनज्मि । त्वा । ब्रह्मणा । दैव्येन । दीदिहि । अस्मभ्यम् । द्रविणा । इह । भद्रम् । प्र । इमम् । वोच: । हवि:ऽदाम् । देवतासु ॥८३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 78; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अस्मै) इस [क्षत्रिय] के लिये (क्षत्राणि) क्षात्रबल (धारयन्तम्) प्रदान करते हुए (अग्ने) हे ज्ञानाग्निसम्पन्न ! [शिष्य] (त्वा) तुझे (दैव्येन) देवाधिदेव (ब्रह्मणा) ब्रह्म के साथ (युनज्मि), मैं अध्यात्मगुरु योगविधि द्वारा सम्बद्ध करता हूं। (दीदिहि) तू प्रदान कर (इह) इस राष्ट्र में (अस्मभ्यम्) हम प्रजाजनों को (द्रविणा = द्रविणानि) सुपथ द्वारा अजितधन तथा (भद्रम्) कल्याण और सुखप्रद जीवन तथा (हविर्दाम्) प्रजाओं को हविष्यान्न प्रदान करने वाले (इमम्) इस राजा को (देवतासु) राष्ट्र की विद्वत्समाज में (प्रवोचः) प्रख्यात कर।
टिप्पणी -
[अध्यात्मशिष्य को ज्ञानाग्निप्रदान (मन्त्र १) करने वाला अध्यात्म शिष्य के प्रति कहता है कि मैं ब्रह्म के साथ भी तुझे योगयुक्त करता हूं, तू राजा को क्षात्रधर्म के साथ ब्रह्मज्ञान भी प्रदान किया कर और राजा को यह भी उपदेश दे कि वह प्रजाओं के भोजन के लिये उन्हें हविष्यान्न प्रदान किया कर करे, जिससे प्रजाजन सात्त्विक हो सकें। देवतासु ="विद्वांसो वै देवाः")]।