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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
सूक्त - उपरिबभ्रवः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - उपरिबभ्रव सूक्त
भ॒द्रादधि॒ श्रेयः॒ प्रेहि॒ बृह॒स्पतिः॑ पुरए॒ता ते॑ अस्तु। अथे॒मम॒स्या वर॒ आ पृ॑थि॒व्या आ॒रेश॑त्रुं कृणुहि॒ सर्व॑वीरम् ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒द्रात् । अधि॑ । श्रेय॑: । प्र । इ॒हि॒ । बृह॒स्पति॑: । पु॒र॒:ऽए॒ता । ते॒ । अ॒स्तु॒ । अथ॑ । इ॒मम् । अ॒स्या: । वरे॑ । आ । पृ॒थि॒व्या: । आ॒रेऽश॑त्रुम् । कृ॒णु॒हि॒ । सर्व॑ऽवीरम् ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रादधि श्रेयः प्रेहि बृहस्पतिः पुरएता ते अस्तु। अथेममस्या वर आ पृथिव्या आरेशत्रुं कृणुहि सर्ववीरम् ॥
स्वर रहित पद पाठभद्रात् । अधि । श्रेय: । प्र । इहि । बृहस्पति: । पुर:ऽएता । ते । अस्तु । अथ । इमम् । अस्या: । वरे । आ । पृथिव्या: । आरेऽशत्रुम् । कृणुहि । सर्वऽवीरम् ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(भद्रात् अधि) भद्रमार्ग से (श्रेयः) श्रेयमार्ग की ओर (प्रेहि) तू जा, (बृहस्पतिः) बृहद्-ब्रह्माण्ड का पति परमेश्वर (ते) तेरा (पुरएता) अग्रगामी (अस्तु) हो, मार्गदर्शक हो। (अथ) तदनन्तर हे बृहस्पति ! (इमम्) इस श्रेयमार्गी को (अस्याः पृथिव्याः) इस पृथिवी के (वरे) उत्कृष्ट स्थान में (आ) पूर्णतया (कृणुहि) स्थापित कर और (सर्ववीरम्) सब प्रयत्न शक्तियों समेत (शत्रुम्) इसके शत्रु को (आरे) दूर (कृणुहि) कर।
टिप्पणी -
[सूक्त (७) के मन्त्र में दैत्यभावों के स्थान में दिव्यभावों को हृदय में स्थापित करने का वर्णन हुआ है। यह है भद्रमार्ग। इस भद्रमार्ग से श्रेयमार्ग की ओर जाने का कथन इस मन्त्र में हुआ है। श्रेयमार्ग की ओर जाने में परमेश्वर को अगुआ कर उसका पदानुगामी बनना चाहिये, ताकि श्रेयमार्गी पथभ्रष्ट न हो जाय। इस श्रेय मार्ग पर चलते हुए कामादि शत्रु, निज प्रबल शक्तियों सहित इसे श्रेयमार्ग से विचलित करने की चेष्टा करते हैं, उन्हें परमेश्वर की प्रार्थना, उपासना पूर्वक दूर करते रहना चाहिये]।