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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सूक्त - उपरिबभ्रवः
देवता - पूषा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वस्तिदा पूषा सूक्त
प्रप॑थे प॒थाम॑जनिष्ट पू॒षा प्रप॑थे दि॒वः प्रप॑थे पृथि॒व्याः। उ॒भे अ॒भि प्रि॒यत॑मे स॒धस्थे॒ आ च॒ परा॑ च चरति प्रजा॒नन् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रऽप॑थे । प॒थाम् । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । पू॒षा । प्रऽप॑थे । दि॒व: । प्रऽप॑थे । पृ॒थि॒व्या: । उ॒भे इति॑ । अ॒भि । प्रि॒यत॑मे॒ इति॑ प्रि॒यऽत॑मे । स॒धऽस्थे इति॑ स॒धऽस्थे॑ । आ । च॒ । परा॑ । च॒ । च॒र॒ति॒ । प्र॒ऽजा॒नन् ॥१०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्याः। उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽपथे । पथाम् । अजनिष्ट । पूषा । प्रऽपथे । दिव: । प्रऽपथे । पृथिव्या: । उभे इति । अभि । प्रियतमे इति प्रियऽतमे । सधऽस्थे इति सधऽस्थे । आ । च । परा । च । चरति । प्रऽजानन् ॥१०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(पथाम्) मार्गों में से (प्रपथे) श्रेष्ठमार्ग पर चलते हुए, (पूषा) पोषक परमेश्वर (अजनिष्ट) प्रकट होता है, (दिवः) अर्थात् दिव्य (प्रपथे) श्रेष्ठ मार्ग पर, तथा (पृथिव्याः) पार्थिव (प्रपथे) श्रेष्ठ मार्ग पर [चलते हुए को]। (उभे) ये दोनों मार्ग (प्रियतमे) अत्यन्त लगते हैं, और जीवन में साथ-साथ स्थित रहते हैं। (प्रजानन्) प्रज्ञानी व्यक्ति (अभि) इन दोनों मार्गों को संमुख कर (आ च) इधर के अर्थात् प्रेय के मार्ग की ओर, (परा च) और परले अर्थात् श्रेयमान की ओर [युगपत्] (चरति) चलता है।
टिप्पणी -
[जीवन के दो मार्ग है, दिव् का मार्ग अर्थात् देवों का मार्ग मार्ग, श्रेयमार्ग और पार्थिव जीवन का मार्ग, प्रेयमार्ग। इन दोनों मार्गों पर साथ-साथ चला जा सकता है (सधस्थे) यदि इन दोनों मार्गों पर उत्कृष्टरूप में– अर्थात् दोनों मार्गों के लिये निर्दिष्ट समन्वित निजकर्तव्यों का पालन करते हुए, चला जाय (प्रपथे) तो दोनों मार्गों में परमेश्वर की प्राप्ति हो सकती है। परमेश्वर पूषा है, वह दोनों मार्गों पर युगपत् चलने वाले को पुष्टि प्रदान करता रहता है]।