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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
परि॑ स्तृणीहि॒ परि॑ धेहि॒ वेदिं॒ मा जा॒मिं मो॑षीरमु॒या शया॑नाम्। हो॑तृ॒षद॑नं॒ हरि॑तं हिर॒ण्ययं॑ नि॒ष्का ए॒ते यज॑मानस्य लो॒के ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । स्तृ॒णी॒हि॒ । परि॑ । धे॒हि॒ । वेदि॑म् । मा । जा॒मिम् । मो॒षी॒: । अ॒मु॒या । शया॑नाम् । हो॒तृ॒ऽसद॑नम् । हरि॑तम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । नि॒ष्का: । ए॒ते । यज॑मानस्य । लो॒के ॥१०४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
परि स्तृणीहि परि धेहि वेदिं मा जामिं मोषीरमुया शयानाम्। होतृषदनं हरितं हिरण्ययं निष्का एते यजमानस्य लोके ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । स्तृणीहि । परि । धेहि । वेदिम् । मा । जामिम् । मोषी: । अमुया । शयानाम् । होतृऽसदनम् । हरितम् । हिरण्ययम् । निष्का: । एते । यजमानस्य । लोके ॥१०४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 99; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(वेदिम्) यज्ञवेदि को (परि) सब ओर (स्तृणीहि) आच्छादित कर (परि धेहि) और उसे परिधि द्वारा घेर, (अमुया) उस वेदि के समीप (शयानाम्) शयन की हुई (जामिम्) यजमान-पत्नी को (मा मोषीः) कष्ट न पहुंचा। होतृषदनम्= होता के बैठने का आसन (हरितम) मनोहारी तथा (हिरण्ययम्) हिरण्यमय हो। (यजमानस्य) यजमान के (लोके) घर में (एते निष्काः) ये निष्क [पर्याप्त] हैं।
टिप्पणी -
[यज्ञारम्भ करने से पूर्व अभ्यागतों के बैठने के लिये वेदि पर आसन बिछा देने चाहिये, और यज्ञवेदि को परिधियों द्वारा घर देना चाहिये, ताकि कोई पशु यज्ञवेदि में प्रवेश न पा सके। यदि किसी व्रत को धारण कर यजमान की पत्नी, यज्ञ की पूर्वरात्री में वेदि के समीप आकर शयन कर रही हो तो उसके शयन में किसी प्रकार भी बाधा या विघ्न न होना चाहिये। यजमान धनवान् है अतः उसके होता का आसन, उसके सत्कारार्थ, सुवर्णमय होना चाहिये। निष्काः= "निष्कः A golden coin of different values" (आप्टे)। निष्कः= निः (निश्चित परिमाण वाला) + कः (क्रय-विक्रय का साधन)। जिसे मुद्रा और सिक्का कहते हैं, और जिसे राज्य द्वारा निर्मित किया जाता है। निष्क का अर्थ सुवर्ण-हार भी होता है। मोषीः= इस द्वारा सोई हुई पत्नी की निद्रा के अपहरण करने को स्तेय कहा है "मुष स्तेये" (क्र्यादिः)। निद्रा भी एक धन है, उस का अपहरण करने वाला मानो धन का अपहरण करता है, अतः चोर है। निष्कः= सिक्का। “नि" के "न्” का लोप, शेष बचा, “इष्क"= इ + स् + क= सिक सिक्का (सुवर्णमय)]