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अथर्ववेद > काण्ड 11 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 21
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - त्रिपदा गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    मू॒ढा अ॒मित्रा॑ न्यर्बुदे ज॒ह्येषां॒ वरं॑वरम्। अ॒नया॑ जहि॒ सेन॑या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒ढा: । अ॒मित्रा॑: । नि॒ऽअ॒र्बु॒दे॒ । ज॒हि । ए॒षा॒म् । वर॑म्ऽवरम् । अ॒नया॑ । ज॒हि॒ । सेन॑या ॥१२.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूढा अमित्रा न्यर्बुदे जह्येषां वरंवरम्। अनया जहि सेनया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मूढा: । अमित्रा: । निऽअर्बुदे । जहि । एषाम् । वरम्ऽवरम् । अनया । जहि । सेनया ॥१२.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 21

    शब्दार्थ -
    (न्यर्बुदे) हे शक्तिसम्पन्न सेनापते ! (अमित्राः) शत्रु लोग (मूढाः) चेतनारहित हो जाएँ (ऐषां वरं वरम्) इनके श्रेष्ठ-श्रेष्ठ सेनापतियों को (जहि) मार डाल, नष्ट कर दे । शत्रुओं को (अनया सेनया) अपनी इस विशाल-वाहिनी से (जहि) मार डाल

    भावार्थ - वैदिक युद्धवाद किसी टिप्पणी का भिखारी नहीं है । वैदिक योद्धाओं को ऐसा भयंकर और घमासान का युद्ध करना चाहिए कि शत्रु लोग चेतनारहित हो जाएँ। शत्रु पक्ष के वीर योद्धाओं को चुन-चुनकर मार देना चाहिए ।

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