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अथर्ववेद > काण्ड 11 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 24
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    ये र॒थिनो॒ ये अ॑र॒था अ॑सा॒दा ये च॑ सा॒दिनः॑। सर्वा॑नदन्तु॒ तान्ह॒तान्गृध्राः॑ श्ये॒नाः प॑त॒त्रिणः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । र॒थिन॑: । ये । अ॒र॒था: । अ॒सा॒दा: । ये । च॒ । सा॒दिन॑: । सर्वा॑न् । अ॒द॒न्तु॒ । तान् । ह॒तान् । गृध्रा॑: । श्ये॒ना: । प॒त॒त्रिण॑: ॥१२.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये रथिनो ये अरथा असादा ये च सादिनः। सर्वानदन्तु तान्हतान्गृध्राः श्येनाः पतत्रिणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । रथिन: । ये । अरथा: । असादा: । ये । च । सादिन: । सर्वान् । अदन्तु । तान् । हतान् । गृध्रा: । श्येना: । पतत्रिण: ॥१२.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 24

    शब्दार्थ -
    हे सेनापते ! (ये) जो शत्रु लोग (रथिन:) रथों पर सवार हैं और (ये) जो (अरथा:) रथ पर सवार नहीं हैं (असादा:) जो घोड़ों पर सवार नहीं हैं (च) और (ये सादिन:) जो घोड़ों पर सवार हैं उन सबको मार डाल जिससे ( तान् सर्वान् हतान्) उन सब मरे हुओं को (गृध्राः) गीध (श्येना:) बाज़ और (पत्रिण:) दूसरे चील-कव्वे आदि पक्षी (दन्तु) खा जाएँ ॥ २॥

    भावार्थ - योद्धाओं को ही नहीं, सेना को भी समाप्त कर देना चाहिए । जो रथ पर चढ़कर लड़नेवाले हैं, घुड़सवार हैं, अथवा पैदल हैं-सबका सफाया कर देना चाहिए । शत्रु पर दया वैदिक मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल है।

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