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अथर्ववेद > काण्ड 12 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 48
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    न किल्बि॑ष॒मत्र॒ नाधा॒रो अस्ति॒ न यन्मि॒त्रैः स॒मम॑मान॒ एति॑। अनू॑नं॒ पात्रं॒ निहि॑तं न ए॒तत्प॒क्तारं॑ प॒क्वः पुन॒रा वि॑शाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । किल्बि॑षम् । अत्र॑ । न । आ॒ऽधा॒र: । अस्ति॑ । न । यत् । मि॒त्रै: । स॒म्ऽअम॑मान: । एति॑ । अनू॑नम् । पात्र॑म् । निऽहि॑तम् । न॒: । ए॒तत्। प॒क्तार॑म् । प॒क्व: । पुन॑: । आ । वि॒शा॒ति॒ ॥३.४८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न किल्बिषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति। अनूनं पात्रं निहितं न एतत्पक्तारं पक्वः पुनरा विशाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । किल्बिषम् । अत्र । न । आऽधार: । अस्ति । न । यत् । मित्रै: । सम्ऽअममान: । एति । अनूनम् । पात्रम् । निऽहितम् । न: । एतत्। पक्तारम् । पक्व: । पुन: । आ । विशाति ॥३.४८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 48

    शब्दार्थ -
    (अत्र) इसमें, कर्मफल के विषय में (किल्बिषम् न) कोई त्रुटि, कमी नहीं होती और (न) न ही (आधार: अस्ति) किसीकी सिफारिश चलती है (न यत्) यह बात भी नहीं है कि (मित्रैः) मित्रों के साथ (सम् अममान: एति) सङ्गति करता हुआ जा सकता है (नः एतत् पात्रम्) हमारा यह कर्मरूपी पात्र (अनूनम् निहितम्) पूर्ण है, बिना किसी घटा-बढ़ी के सुरक्षित रक्खा है (पक्तारम्) पकानेवाले को, कर्मकर्ता को (पक्व:) पकाया हुआ पदार्थ, कर्मफल (पुन:) फिर (आ विशाति) आ मिलता है, प्राप्त हो जाता है ।

    भावार्थ - मन्त्र में कर्मफल का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है । कर्म का सिद्धान्त इस एक ही मन्त्र में पूर्णरूप से समझा दिया गया है— १. कर्मफल में कोई कमी नहीं हो सकती । मनुष्य जैसे कर्म करेगा उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ेगा । २. कर्मफल के विषय में किसीकी सिफारिश नहीं चलती । किसी पीर, पैगम्बर पर ईमान लाकर मनुष्य कर्मफल से बच नहीं सकता । ३. मित्रों का पल्ला पकड़कर भी कर्मफल से बचा नहीं जा सकता। ४. किसी भी कारण से हमारे कर्मफल-पात्र में कोई कमी या बेशी नहीं हो सकती । यह भरा हुआ और सुरक्षित रक्खा रहता है । ५. कर्मकर्ता जैसा कर्म करता है वैसा ही फल उसे प्राप्त हो जाता है । यदि संसार से त्राण पाने की इच्छा है तो शुभकर्म करो ।

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