अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 48
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
79
न किल्बि॑ष॒मत्र॒ नाधा॒रो अस्ति॒ न यन्मि॒त्रैः स॒मम॑मान॒ एति॑। अनू॑नं॒ पात्रं॒ निहि॑तं न ए॒तत्प॒क्तारं॑ प॒क्वः पुन॒रा वि॑शाति ॥
स्वर सहित पद पाठन । किल्बि॑षम् । अत्र॑ । न । आ॒ऽधा॒र: । अस्ति॑ । न । यत् । मि॒त्रै: । स॒म्ऽअम॑मान: । एति॑ । अनू॑नम् । पात्र॑म् । निऽहि॑तम् । न॒: । ए॒तत्। प॒क्तार॑म् । प॒क्व: । पुन॑: । आ । वि॒शा॒ति॒ ॥३.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
न किल्बिषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति। अनूनं पात्रं निहितं न एतत्पक्तारं पक्वः पुनरा विशाति ॥
स्वर रहित पद पाठन । किल्बिषम् । अत्र । न । आऽधार: । अस्ति । न । यत् । मित्रै: । सम्ऽअममान: । एति । अनूनम् । पात्रम् । निऽहितम् । न: । एतत्। पक्तारम् । पक्व: । पुन: । आ । विशाति ॥३.४८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
(अत्र) इस [हमारे समाज] में (न) न तो (किल्बिषम्) कोई दोष, (न) न (आधारः) गिर पड़ने का व्यवहार (अस्ति) है और (न) न [वह कर्म है] (यत्) जिससे (मित्रैः) मित्रों के साथ (समममानः) बहुत पीड़ा देनेवाला व्यवहार (एति) चलता है। (एतत्) यह (नः) हमारा (पात्रम्) पात्र [हृदय] (अनूनम्) बिना रीता [परिपूर्ण] (निहितम्) रक्खा हुआ है, (पक्वः) परिपक्व [दृढ़ बोध] (पक्तारम्) दृढ़ करनेवाले पुरुष में (पुनः) निश्चय करके (आ विशाति) प्रवेश करेगा ॥४८॥
भावार्थ
जो मनुष्य अपने और अपने सम्बन्धियों के दोषों को हटाकर सब को उत्तम गुणी बनाता है, तब उनके हृदयों में परिपक्व ज्ञान प्रवेश करता है ॥४८॥
टिप्पणी
४८−(न) निषेधे (किल्विषम्) अ० ५।१९।५। किल पीडायाम्−टिषच् बुक् च। अपराधः (अत्र) समाजे (न) (आधारः) आङ्+धृङ् अवध्वंसने अवस्थाने च−घञ्। संपतनव्यवहारः (अस्ति) (न) (यत्) यस्मात् (मित्रैः) (समममानः) सम्+अम गतौ−पीडने च−चानश्। संपीडको व्यवहारः (एति) गच्छति। वर्तते (अनूनम्) परिपूर्णम् (पात्रम्) रक्षासाधनम्। हृदयम् (निहितम्) स्थापितम् (नः) अस्माकम् (एतत्) प्रत्यक्षम् (पक्तारम्) दृढीकर्तारम् (पक्वः) दृढो बोधः (पुनः) अवधारणे (आ विशाति) लेट्। प्रविशेत् ॥
विषय
न किल्बिषं, न आधारः
पदार्थ
१. (अत्र) = यहाँ हमारे जीवन में (न किल्बिषम् अस्ति) = न पाप है, (न आधार:) = [धृङ् अवध्वंसने falling] न पतन। (न) = न ही यह बात है (यत्) = कि (मित्रैः सम्) = मित्रों के साथ (अममान: एति) = [अम् to eat] इधर-उधर खाता हुआ घूमता है। आजकल के युग की भाषा में वह होटलों में मित्रों के साथ चायपार्टी ही नहीं करता रहता है। २. (न:) = हमारा (एतत् पात्रम्) = यह अन्न का पात्र (अनूनं निहितम्) = न न्यूनतावाला स्थापित होता है। हमारे घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती। इसप्रकार पवित्र जीवन में (पक्तारम्) = अपना परिपाक करनेवाले का (पक्व:) = यह परिपक्व हुआ-हुआ वीर्य (पुनः आविशाति) = फिर से शरीर में समन्तात् प्रवेश करता है-शरीर में ही व्याप्त हो जाता है।
भावार्थ
हमारे जीवनों में न पाप हो, न पतन। न ही हम मित्रों के साथ इधर-उधर खाते पीते रहें। घर में हमारे अत्र की कमी न हो परिपक्वशक्ति को तपस्या के द्वारा शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करें।
भाषार्थ
(अत्र) इस प्रकार के गृहस्थ जीवन में (किल्विषम् न) कोई पाप नहीं, (न आधारः अस्ति) न यह लाच्छन है कि यह किसी का धारण-पोषण नहीं करता, (न यत्) न यह कि (मित्रैः समम्) मित्रों के संग (अमानः) मानरहित होता हुआ यह (एति) विचरता है। (नः) हमारा (एतत्) यह (पात्रम्) पात्र (अनूनं निहितम्) सदा भरपूर रखा रहता है, न्यून नहीं होता। (पक्वः) पका भोजन, (पुनः) अतिथि आदि की सेवा के पश्चात्, (पक्तारम्) पकाने वाले में (आ विशाति) प्रवेश करे, या करता है।
टिप्पणी
[गृहस्थ में रह कर जीवन व्यतीत करने में कोई पाप नहीं। यथा "इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्। क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वस्तको" (अथर्व० १४।१।२२)। आधारः= आ+अधरः (धारण-पोषण रहितः)। अन्नार्थियों द्वारा भोजन खा लेने के पश्चात् अन्नदाता अन्नसेवन करे। यथा:-"अशितावत्यतिथावश्नीयाद् यज्ञस्य सात्मत्वाय यज्ञस्याविच्छेदाय तद् व्रतम्" (अथर्व० ९।६।पर्याय ३। मन्त्र ८); अर्थात् "अतिथि के खा चुकने पर खाए, अतिथि यज्ञ की आत्मा के बने रहने के लिये, अतिथि यज्ञ के लगातार बने रहने के लिये, यह व्रत है"। समममानः = समम् (साथ) + अमानः (मान रहितः)]।
विषय
कर्मफल
शब्दार्थ
(अत्र) इसमें, कर्मफल के विषय में (किल्बिषम् न) कोई त्रुटि, कमी नहीं होती और (न) न ही (आधार: अस्ति) किसीकी सिफारिश चलती है (न यत्) यह बात भी नहीं है कि (मित्रैः) मित्रों के साथ (सम् अममान: एति) सङ्गति करता हुआ जा सकता है (नः एतत् पात्रम्) हमारा यह कर्मरूपी पात्र (अनूनम् निहितम्) पूर्ण है, बिना किसी घटा-बढ़ी के सुरक्षित रक्खा है (पक्तारम्) पकानेवाले को, कर्मकर्ता को (पक्व:) पकाया हुआ पदार्थ, कर्मफल (पुन:) फिर (आ विशाति) आ मिलता है, प्राप्त हो जाता है ।
भावार्थ
मन्त्र में कर्मफल का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है । कर्म का सिद्धान्त इस एक ही मन्त्र में पूर्णरूप से समझा दिया गया है— १. कर्मफल में कोई कमी नहीं हो सकती । मनुष्य जैसे कर्म करेगा उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ेगा । २. कर्मफल के विषय में किसीकी सिफारिश नहीं चलती । किसी पीर, पैगम्बर पर ईमान लाकर मनुष्य कर्मफल से बच नहीं सकता । ३. मित्रों का पल्ला पकड़कर भी कर्मफल से बचा नहीं जा सकता। ४. किसी भी कारण से हमारे कर्मफल-पात्र में कोई कमी या बेशी नहीं हो सकती । यह भरा हुआ और सुरक्षित रक्खा रहता है । ५. कर्मकर्ता जैसा कर्म करता है वैसा ही फल उसे प्राप्त हो जाता है । यदि संसार से त्राण पाने की इच्छा है तो शुभकर्म करो ।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
(अत्र) यहां इस कार्य में (न किल्विषम्) कोई पाप नहीं और (न आधारः) और कोई आधार भी नहीं अर्थात् कोई विशेष वाधक कारण भी नहीं है कि (यत्) जब राजा (मित्रैः समम्) अपने मित्रों सहित (मानः न एति) मान रहित होकर नहीं आता प्रत्युत बड़े भारी मान सहित आता है। अथवा—(यत् मित्रैः सम्-अममानः न एति) यह कोई पाप = आशंका या रुकावट नहीं कि राजा अपने मित्रों की सहायता से युक्त होकर नहीं रहता। अथवा—(यत् मित्रैः सम-मानः न एति) जब मित्रों के समान मान वाला होकर नहीं आता प्रत्युत उनसे अधिक मानवाण् होकर प्रकट होता है। प्रत्युत इसका कारण यह है कि (नः) हम प्रजाओं का तो यह राजा ही (अनूनं पात्रम्) अनून पात्र अर्थात् पालन करने में समर्थ एवं शक्तिशाली है कि जिसमें कोई त्रुटि नहीं है इसलिये वह अन्यों की सहायता की अपेक्षा नहीं करता। (पक्वः) परिपक्व भात जिस प्रकार (पक्तारम् आविशाति) पकाने वाले के भीतर ही प्रवेश कर जाता है उसी प्रकार (पक्वः) परिपक्व वीर्यवान् भी (पक्तारं) उसको पकाने, दृढ़ करने वाले पुरुषों के पास ही (आविशति) प्रविष्ट हो कर रहता है। इसी प्रकार परिपक्व ब्रह्मचर्यादि बल भी अपने परिपाक करने वाले के भीतर ही रहता है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘सममान’, ‘संनममान’, ‘सनममान’ ‘संमममान’, इति बहुधा पाठाः। तत्र ‘सम्-अनमानः’ इतिपद पाठः। ‘समम अमानः’ इत्यपि पदच्छेदः सम्भवः। ‘सम-मान’ इति वा न विरुद्धः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
There is nothing short, no want, no void in the Lord’s system here in life, nor props nor false supports, no one can go on without one’s own identity on stilts provided by friends. The life before us is full and perfect, prepared and provided by our own selves by our own karma. The dish one has cooked presents itself before the one that has cooked it. One must taste the fruit of one’s own action (in the cycle).
Translation
No offense is here, nor support, nor that one goes agreeing with friends; this vessel of ours is set down not empty, the coooked shall enter again him that cooked it.
Translation
Here (in the act of munificence) is no sin or fault, no reservation. This also dose not rest allied with other friends. This vessel perfectly full is fixd for the purpose (of giving). The cooked food returns to man who cooks i. c. the gift given returns to giver.
Translation
In this society of ours there is no sin, no degradation, no conduct, whereby friends are put to inconvenience. Our heart is entirely full of affection. Mature knowledge is acquired by him who strives hard for it
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४८−(न) निषेधे (किल्विषम्) अ० ५।१९।५। किल पीडायाम्−टिषच् बुक् च। अपराधः (अत्र) समाजे (न) (आधारः) आङ्+धृङ् अवध्वंसने अवस्थाने च−घञ्। संपतनव्यवहारः (अस्ति) (न) (यत्) यस्मात् (मित्रैः) (समममानः) सम्+अम गतौ−पीडने च−चानश्। संपीडको व्यवहारः (एति) गच्छति। वर्तते (अनूनम्) परिपूर्णम् (पात्रम्) रक्षासाधनम्। हृदयम् (निहितम्) स्थापितम् (नः) अस्माकम् (एतत्) प्रत्यक्षम् (पक्तारम्) दृढीकर्तारम् (पक्वः) दृढो बोधः (पुनः) अवधारणे (आ विशाति) लेट्। प्रविशेत् ॥
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