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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    54

    स्व॒र्गं लो॒कम॒भि नो॑ नयासि॒ सं जा॒यया॑ स॒ह पु॒त्रैः स्या॑म। गृ॒ह्णामि॒ हस्त॒मनु॒ मैत्वत्र॒ मा न॑स्तारी॒न्निरृ॑ति॒र्मो अरा॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒:ऽगम् । लो॒कम् । अ॒भि । न॒: । न॒या॒सि॒ । सम् । जा॒यया॑ । स॒ह । पु॒त्रै: । स्या॒म॒ । गृ॒ह्णामि॑ । हस्त॑म् । अनु॑ । मा॒ । आ । ए॒तु॒ । अत्र॑ । मा । न॒: । ता॒री॒त् । नि:ऽऋ॑ति: । मो इति॑ । अरा॑ति: ॥३.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वर्गं लोकमभि नो नयासि सं जायया सह पुत्रैः स्याम। गृह्णामि हस्तमनु मैत्वत्र मा नस्तारीन्निरृतिर्मो अरातिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्व:ऽगम् । लोकम् । अभि । न: । नयासि । सम् । जायया । सह । पुत्रै: । स्याम । गृह्णामि । हस्तम् । अनु । मा । आ । एतु । अत्र । मा । न: । तारीत् । नि:ऽऋति: । मो इति । अराति: ॥३.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वान् !] (स्वर्गम्) सुख पहुँचानेवाले (लोकम् अभि) समाज में (नः) हमको (नयासि) तू पहुँचा, हम (जायया) पत्नी के साथ और (पुत्रैः सह) पुत्रों [दुःख से बचानेवालों] के साथ (सं स्याम) मिले रहें। मैं [प्रत्येक मनुष्य] (हस्तम्) [प्रत्येक का] हाथ (गृह्णामि) पकड़ता हूँ, वह (अत्र) यहाँ (मा अनु) मेरे साथ-साथ (आ एतु) आवे, (नः) हमको (मा) न तो (निर्ऋतिः) अलक्ष्मी [दरिद्रता] (मो) और न (अरातिः) कंजूसी (तारीत्) दबावे ॥१७॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से उत्तम स्त्री और सन्तानों में रहकर अपना घर स्वर्गलोक बनावें और परस्पर सहाय करके धनी और दानी होवें ॥१७॥ इस मन्त्र का अन्तिम पाद भेद से आ चुका है−अथर्व० ६।१३४।३ ॥

    टिप्पणी

    १७−(स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (लोकम्) जनसमाजम् (अभि) प्रति (नः) अस्मान् (नयासि) प्रापय (सम्) संगत्य (जायया) पत्न्या (सह) (पुत्रैः) म० ४। नरकात् त्रायकैः (स्याम) (गृह्णामि) आददे (हस्तम्) (अनु) अनुसृत्य (मा) माम् (ऐतु) आगच्छतु (अत्र) संसारे (नः) अस्मान् (मा तारीत्) अ० २।७।४। तॄ अभिभवे−लुङ्। माभिभवतु (निर्ऋतिः) अलक्ष्मीः (मो) मैवं (अरातिः) अदानता। कृपणता ॥

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    विषय

    न अलक्ष्मी, न कृपणता

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (आपन:) = हमें स्(वर्ग लोकम् अभि) = स्वर्गलोक की ओर (नयासि) = ले-चलते हो। आप हमें ऐसी शक्ति प्राप्त कराते हो कि हम अपने घर को स्वर्गलोक बना पाते हैं। हम (जायया सह) = अपनी पत्नी के साथ (स्याम) = हों तथा (पुत्रैः सं) [स्याम] = पुत्रों के साथ संगत हों। सदा पत्नी के साथ सम्यक् धर्म का पालन करते हुए उत्तम पुत्रों को प्राप्त करें। २. हे प्रभो! (हस्तम् गृह्णामि) = जिस भी साथी का हाथ में पकड़ता हूँ-जिस भी युवति के साथ मेरा पाणिग्रहण होता है-(अनु मा एतु) = वह सदा अनुकूलता से मेरा अनुगमन करनेवाली हो। (अत्र) = इस गृहस्थ में, इस प्रकार अनुकूलता के होने पर (न:) = हमें (निति:) = अलक्ष्मी (मा तारीत्) = अभिभूत न करे [त् अभिभवे], (उ) = और (अराति:) = अदान की वृत्ति भी (मा) [तारीत्] = अभिभूत करनेवाली न हो। न तो हमारे घर में अलक्ष्मी का राज्य हो, न ही कृपणता का।

     

    भावार्थ

    हम घर को स्वर्ग बना पाएँ। पत्नी व पुत्रों के साथ सदा प्रेम से रहें। पति पत्नी की अनुकूलता हो। अलक्ष्मी व कृपणता का हमारे यहाँ निवास न हो।

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    भाषार्थ

    हे ज्योतिष्मान् ! (१६), (नः) हमें (स्वर्ग१ लोकम् अभि) सद् गृहस्थरूपी स्वर्ग लोक की ओर (नयासि) ले चल, ताकि हम (जायया) पत्नी के (सम् स्याम) साथ हों, अर्थात् पत्नियों वाले हों, और (पुत्रैः सह स्याम) पुत्रों के साथ हों। हे वधू ! (हस्तं गृह्णामि) मैं तेरा पाणिग्रहण करता हूं, (अत्र) इस गृहस्थ में वह (मा अनु एतु) मेरी अनुव्रता हो। गृहस्थ में (निर्ऋतिः) कष्ट (मा तारीत्) हमें न प्राप्त हो (मा अरातिः) न अदानवृत्ति प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [जिस गृहस्थ में पत्नी अनुव्रता न हो वहां कष्टमय जीवन हो जाता है। गृहस्थधारण कर अदानी न होना चाहिये। अदानभावना के होते पञ्चमहायज्ञ निष्पन्न नहीं हो सकते। अरातिः = अ+ रा (दाने) + तिः]। [१. मन्त्र भावना, गृहस्थ-स्वर्ग सम्बन्धिती है।]

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! आप (नः) हमें (स्वर्ग लोकम्) सदा सुखकारी लोक में ही (अभि नयासि) साक्षात् प्राप्त कराते हो। हम सदा (जायया) पुत्र उत्पन्न करने-हारी स्त्री और उससे उत्पन्न (पुत्रैः) पुत्रों के साथ (स्याम) रहें। जिसका भी मैं (हस्तं गृह्णानि) हाथ पकहूं, वही स्त्री (मा अनु एतु) मेरे पीछे पीछे मेरी धर्मपत्नी होकर चले (निर्ऋतिः) पाप-वासना (मा) मुझे (मा तारीत्) कष्ट न दे। और (मा उ अरातिः) शत्रु या अदान-शील कृपण लोग या लोभ वृत्ति भी सुझे न सतावे।

    टिप्पणी

    (च०) ‘नो एतिः’ इति पेप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    O Lord giver of life and knowledge, you lead us to the state of paradisal bliss on earth. Bless us that we may live and enjoy life with wife and children. May the wife whose hand I hold always go with me here in Grhastha. Let no want, adversity and distress ever assail us.

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    Translation

    Unto the heavenly world shalt thou conduct us; we be united with wife, with sons; I grasp hand; let her come here after me; let not destruction pass us, nor the niggard.

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    Translation

    O God! if you send us to the state of special happiness, may we enjoy there with wife and children. The lady whose hand I grasp (in marrying her ) follows me here strictly. Let not destruction and calamity trouble us.

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    Translation

    O God, Thou ever leadest us to a region full of joy. May we dwell in this world happily with our wife and children. May she, whose hand I.grasp follow me as a devoted wife. Let not poverty, let not misfortune come hither and subdue us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (लोकम्) जनसमाजम् (अभि) प्रति (नः) अस्मान् (नयासि) प्रापय (सम्) संगत्य (जायया) पत्न्या (सह) (पुत्रैः) म० ४। नरकात् त्रायकैः (स्याम) (गृह्णामि) आददे (हस्तम्) (अनु) अनुसृत्य (मा) माम् (ऐतु) आगच्छतु (अत्र) संसारे (नः) अस्मान् (मा तारीत्) अ० २।७।४। तॄ अभिभवे−लुङ्। माभिभवतु (निर्ऋतिः) अलक्ष्मीः (मो) मैवं (अरातिः) अदानता। कृपणता ॥

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