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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    40

    अ॒ग्निः पच॑न्रक्षतु त्वा पु॒रस्ता॒दिन्द्रो॑ रक्षतु दक्षिण॒तो म॒रुत्वा॑न्। वरु॑णस्त्वा दृंहाद्ध॒रुणे॑ प्र॒तीच्या॑ उत्त॒रात्त्वा॒ सोमः॒ सं द॑दातै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । पच॑न् । र॒क्ष॒तु॒ । त्वा॒ । पु॒रस्ता॑त् । इन्द्र॑: । र॒क्ष॒तु॒ । द॒क्षि॒ण॒त: ।म॒रुत्वा॑न् । वरु॑ण: । त्वा॒ । दृं॒हा॒त् । ध॒रुणे॑ । प्र॒तीच्या॑: । उ॒त्त॒रात् । त्वा॒ । सोम॑: । सम् । द॒दा॒तै॒ ॥३.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः पचन्रक्षतु त्वा पुरस्तादिन्द्रो रक्षतु दक्षिणतो मरुत्वान्। वरुणस्त्वा दृंहाद्धरुणे प्रतीच्या उत्तरात्त्वा सोमः सं ददातै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । पचन् । रक्षतु । त्वा । पुरस्तात् । इन्द्र: । रक्षतु । दक्षिणत: ।मरुत्वान् । वरुण: । त्वा । दृंहात् । धरुणे । प्रतीच्या: । उत्तरात् । त्वा । सोम: । सम् । ददातै ॥३.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्निः) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (त्वा) तुझ को (पचन्) परिपक्व [दृढ़] करता हुआ (पुरस्तात्) पूर्व वा सन्मुख से (रक्षतु) बचावे, (मरुत्वान्) प्रशस्त धनवाला (इन्द्रः) पूर्ण ऐश्वर्यवाला [परमेश्वर] (दक्षिणतः) दक्षिण वा दाहिने से (रक्षतु) बचावे। (वरुणः) सब में उत्तम परमेश्वर (त्वा) तुझको (धरुणे) धारण सामर्थ्य के बीच (प्रतीच्याः) पश्चिम वा पीछेवाली [दिशा] से (दृंहात्) दृढ़ करे, (सोमः) सब जगत् का उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (त्वा) तुझको (उत्तरात्) उत्तर वा बाएँ से (सं ददातै) सँभाले ॥२४॥

    भावार्थ

    सब स्त्री-पुरुष परमात्मा को सर्वत्र व्यापक जानकर पापों से बचकर धर्म में प्रवृत्त रहें ॥२४॥ इस मन्त्र का मिलान करो−अथर्व० ३।२७।१-४ ॥

    टिप्पणी

    २४−(अग्निः) ज्ञानस्वरूपः परमेश्वरः (पचन्) पक्वं दृढं कुर्वन् (रक्षतु) पालयतु (त्वा) त्वां पुरुषम् (पुरस्तात्) पूर्वदिक्सकाशात्। अग्रतः (इन्द्रः) परमेश्वर्ययुक्तः परमेश्वरः (दक्षिणतः) दक्षिणदिशायाः। दक्षिणदेशात् (मरुत्वान्) मरुत्, हिरण्यनाम−निघ० १।२। प्रशस्तधनवान्। रत्नधातमः (वरुणः) वृञ्−उनन्। सर्वोत्तमः परमेश्वरः (त्वा) (दृंहात्) वर्धयेत्। दृढीकुर्यात् (धरुणे) धृञ् धारणे−उनन्। धारणसामर्थ्ये (प्रतीच्याः) पश्चिमायाः पश्चाद्भागस्थिताया वा दिशः (उत्तरात्) उत्तरदेशाद् वामदेशात् वा (त्वा) (सोमः) सर्वजगदुत्पादकः (सं ददातै) लेटि रूपम्। स्वीकरोतु ॥

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    विषय

    'अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम'

    पदार्थ

    १. (पुरस्तात्) = पूर्व की ओर से (पचन् अग्नि:) = तेरी शक्तियों का परिपाक करता हुआ अग्रणी प्रभु (त्वा रक्षतु) = तेरी रक्षा करे। प्रथमाश्रम में प्रभु को 'अग्नि' नाम से स्मरण करता हुआ निरन्तर आगे बढ़नेवाला बन और अपनी शक्तियों का ठीक से परिपाक कर। २. (मरुत्वान्) = मरुतों [प्राणों]-वाला (इन्द्रः) = शत्रुविद्रावक सर्वेश्वर्यसम्पन्न प्रभु (दक्षिणत: रक्षतु) = दक्षिण की ओर से तेरी रक्षा करे। हम द्वितीयाश्रम में प्राणसाधना करते हुए जितेन्द्रिय बनकर दाक्षिण्य प्राप्त करें और ऐश्वर्य को सिद्ध करें। ३. वरुण:-सब पापों का निवारण करनेवाला प्रभु (प्रतीच्याः) = पश्चिम दिशा से (त्वा) = तुझे (धरुणे दृहांत्) = धारणात्मक कर्म में दृढ़ करे। अब वानप्रस्थाश्रम में हम प्रत्याहार का पाठ पढ़ते हुए [प्रति अञ्च] सब विषयों से अपना निवारण करें [वरुण] और चित्तवृत्ति को सुस्थिर करने का प्रयत्न करें [धरुण]। ४. अब (सोमः) = वे शान्त प्रभु (उत्तरात्) = उत्तर से (त्वा) = तुझे (संददातै) = सम्यक् प्रजा के लिए दें। चतुर्थाश्रम में संन्यस्त होकर हम उत्तम जीवनवाले शान्त [सोम] बनकर प्रजाहित में प्रवृत्त हों और सब लोगों के लिए ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराएँ।

    भावार्थ

    प्रथमाश्रम में हम ठीक प्रकार से शक्तियों का परिपाक करें। द्वितीयाश्रम में प्राणसाधना द्वारा जितेन्द्रिय बने रहकर विषयासक्त होने से बचें। तृतीयाश्रम में सब विषयों का निवारण करके स्थिरवृत्तिता का अभ्यास करें। चतुर्थाश्रम में शान्त व सौम्य बनकर सर्वत्र प्रकाश फैलाएँ।

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    भाषार्थ

    (पचन्) पकाती हुई (अग्निः) अग्नि (त्वा) मुझ कुम्भी को (पुरस्तात्) पूर्व से (रक्षतु) सुरक्षित करे, (मरुत्वान्) मानसून वायु वाला (इन्द्रः) इन्द्र अर्थात् विद्युत् (दक्षिणतः) दक्षिण से (रक्षतु) रक्षित करे। (वरुणः) वरुण अर्थात् जलाधिदेव१ (धरुणे) दृढ़ स्थिति के निमित्त (त्वा) तुझे (प्रतीच्याः) पश्चिम से (दृंहात्) दृढ़ करे, (उत्तरात्) उत्तर से (त्वा) तुझे (सोमः) सोम (सं ददातै) दृढ़ बद्ध करे, बान्धे।

    टिप्पणी

    [अग्निः= अग्नि का सम्बन्ध पूर्वदिशा के साथ है, क्योंकि पृथिवी पर जो अग्नि है उसका मूल स्रोत सूर्य है। पृथिवी के दक्षिण में समुद्र फैला हुआ है। वर्षा ऋतु में मानसून वायु के साथ विद्युत् दक्षिणी समुद्र से आकाश में आती है। मरुत्= मानसून वायु (अथर्व० ४।२७।४,५)। पृथिवी के पश्चिम से चान्द का उदय होता है। सम्भवतः इस मन्त्र में वरुण२ द्वारा चान्द का निर्देश हो। समुद्र के ज्वार-भाटा के साथ चान्द का भी सम्बन्ध है, इसलिये चान्द को जलाधिपति भी कहा हो। उत्तर में सोम का सम्बन्ध दर्शाया है। उत्तर में ओषधियां और वनस्पतियां होती हैं। सोम भी ओषधि है। सोम को ओषधियों का अधिपति कहा है। यथा - "सोमो वीरुधामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।७)। अधिपति होने के कारण सोम का सम्बन्ध उत्तर के साथ दर्शाया गया है३। वीरुधः= विविध प्रकार की रोहण करने वाली ओषधियां तथा वनस्पतियां। रोहण= रुह बीजजन्मनि। सं ददातै= सन्दानम् (रञ्जु)] [१. वरुणोऽपामधिपतिः (अथर्व० ५।२४।४)।] [१. वरुणोऽपामधिपतिः (अथर्व० ५।२४।४)। २. वृञ् आवरणे। चांद रात्रि में निज प्रकाश का आवरण पृथिवी पर डालता है॥ ३. कुम्भी के रक्षक दिव्यतत्त्वों के निर्देश द्वारा, इन्हें अपनी-अपनी नियत दिशाओं से, पृथिवीस्थ समस्त प्राणी और अप्राणी जगत् के रक्षकरूप में दर्शाया है। कुम्भी तो एक दृष्टान्तरूप है।]

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    हे उखे ! पृथिवि ! (पचन्) परिपक्व करता हुआ (अग्निः) अग्नि (पुरस्तात्) आगे से (त्वा) तेरी (रक्षतु) रक्षा करे। और (मरुत्वान् इन्द्रः) मरुत् = देवों, प्राणों और विद्वान् गणों से नाना दिव्य शक्तियों से सम्पन्न इन्द्र (दक्षिणतः) दक्षिण—दायें से तेरी (रक्षतु) रक्षा करे। (प्रतीच्याः) प्रतीची, पश्चिम दिशा के (धरुणे) धारण करने वाले आधार स्थान में (त्वा) तुझे (वरुणः) वरुण (दृंहात्) दृढ़ करे, सुरक्षित रखे। और (उत्तरात्) उत्तर की ओर से बाईं तरफ़ से (सोमः) सोम (त्वा) तुझे (सं ददातै = सं दधातै) भली प्रकार सुरक्षित रखे। उखा = हंडिया को जिस प्रकार चूल्हे पर चढ़ाते हैं आगे से अग्नि होती है शेष तीनों तरफ़ टेक लगती है जिससे हंडिया सुरक्षित रहे। उसी प्रकार राष्ट्र की रक्षा के लिये राजा को चारों दिशाओं अर्थात् चारों प्रकारों से रक्षा के लिये उद्यत रहना चाहिये। जैसे सुरक्षित रूप में इंडिया परिपक्व अन्न देती है उसी प्रकार भूमि नाना प्रकार के अन्नादि सम्पत्तियां प्रसव करती है। ब्रह्मचर्य और वीर्यरक्षा के प्रकरण में अग्नि, इन्द्र, वरुण और सोम चारों आचार्य के नाम हैं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘रक्षात’ (तृ०) ‘सोमस्त्वा’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    In the Vedic crucibles of life, let the yajnic flames of life-fire protect and temper you from the front in the east. Let Indra, with his forces of Maruts, protect and strengthen you from the right in the south. Let Varuna protect, strengthen and secure you from the back in the west for adamantine strength in the all-supporting environment, and let Soma, peace, refreshment and renewal support and sustain you from the left in the north.

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    Translation

    Let Agni, cooking, defend thee on the east; let Indra, with the Maruts, defend on the south; may Varuna fix thee in the maintenance of the western (quarter); on the north may Soma give thee together.

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    Translation

    Let fire which cooks (this oblation) preserve earth from eastern side, let Indra, the electricity accompanied by Maruts guard it from south, let Varuna, the substance of water strengthen and support it westward, and let the Soma element hold it together from north side.

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    Translation

    May the Omniscient God, strengthening thee preserve thee from the East. May the Opulent, Refulgent God guard thee from the South. May the Most Excellent God, with His strength, support thee from the West. May God, the Creator of the universe, hold thee together from the North.

    Footnote

    Thee: Man.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(अग्निः) ज्ञानस्वरूपः परमेश्वरः (पचन्) पक्वं दृढं कुर्वन् (रक्षतु) पालयतु (त्वा) त्वां पुरुषम् (पुरस्तात्) पूर्वदिक्सकाशात्। अग्रतः (इन्द्रः) परमेश्वर्ययुक्तः परमेश्वरः (दक्षिणतः) दक्षिणदिशायाः। दक्षिणदेशात् (मरुत्वान्) मरुत्, हिरण्यनाम−निघ० १।२। प्रशस्तधनवान्। रत्नधातमः (वरुणः) वृञ्−उनन्। सर्वोत्तमः परमेश्वरः (त्वा) (दृंहात्) वर्धयेत्। दृढीकुर्यात् (धरुणे) धृञ् धारणे−उनन्। धारणसामर्थ्ये (प्रतीच्याः) पश्चिमायाः पश्चाद्भागस्थिताया वा दिशः (उत्तरात्) उत्तरदेशाद् वामदेशात् वा (त्वा) (सोमः) सर्वजगदुत्पादकः (सं ददातै) लेटि रूपम्। स्वीकरोतु ॥

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