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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 54
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    44

    त॒न्वं स्व॒र्गो ब॑हु॒धा वि च॑क्रे॒ यथा॑ वि॒द आ॒त्मन्न॒न्यव॑र्णाम्। अपा॑जैत्कृ॒ष्णां रुश॑तीं पुना॒नो या लोहि॑नी॒ तां ते॑ अ॒ग्नौ जु॑होमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒न्व᳡म् ।स्व॒:ऽग: । ब॒हु॒ऽधा । वि । च॒क्रे॒ । यथा॑ । वि॒दे । आ॒त्मन् । अ॒न्यऽव॑र्णाम् । अप॑ । अ॒जै॒त् । कृ॒ष्णाम् । रुश॑तीम् । पु॒ना॒न: । या । लोहि॑नी । ताम् । ते॒ । अ॒ग्नौ । जु॒हो॒मि॒ ॥३.५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्वं स्वर्गो बहुधा वि चक्रे यथा विद आत्मन्नन्यवर्णाम्। अपाजैत्कृष्णां रुशतीं पुनानो या लोहिनी तां ते अग्नौ जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तन्वम् ।स्व:ऽग: । बहुऽधा । वि । चक्रे । यथा । विदे । आत्मन् । अन्यऽवर्णाम् । अप । अजैत् । कृष्णाम् । रुशतीम् । पुनान: । या । लोहिनी । ताम् । ते । अग्नौ । जुहोमि ॥३.५४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 54
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाले [परमेश्वर] ने (तन्वम्) इस फैलावट [सृष्टि] को (बहुधा) बहुत प्रकार से (वि) विशेष करके (चक्रे) बनाया है, (यथा) जैसा (आत्मन्) परमात्मा के भीतर (अन्यवर्णाम्) भिन्नवर्ण [रूप]वाली [सृष्टि] को (विदे) मैं पाता हूँ। (कृष्णाम्) काली [अन्धकारयुक्त] (रुशतीम्) कष्ट देनेवाली [फैलावट] को (पुनानः) शुद्ध करनेवाले [परमेश्वर] ने (अप अजैत्) जीत लिया है, (या) जो (लोहिनी) लोहमयी [कठोर फैलावट] है, (ताम्) उस [फैलावट] को (ते) तेरे (अग्नौ) ज्ञान पर (जुहोमि) मैं छोड़ता हूँ ॥५४॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने विविध सृष्टि को हमारे सुख के लिये रचकर अपने वश में रक्खा है और सब रुकावटों को हटाया है। मनुष्यों को जितना-जितना ज्ञान होता जाता है, उतना ही वह परमेश्वर पर विश्वास करता है ॥५४॥

    टिप्पणी

    ५४−(तन्वम्) विस्तृतिम्। सृष्टिम् (स्वर्गः) सुखप्रापकः परमेश्वरः (बहुधा) विविधप्रकारेण (वि) विशेषेण (चक्रे) रचितवान् (यथा) येन प्रकारेण (विदे) नकारलोपः। अहं विन्दे। लभे (आत्मन्) परमात्मनि (अन्यवर्णाम्) भिन्नभिन्नरूपाम् (अप अजैत्) अजयत्। अवश्यं जितवान्। वशीकृतवान् (कृष्णाम्) कालीम्। अन्धकारयुक्ताम् (रुशतीम्) रुश हिंसायाम्−शतृ। हिंसन्तीम्। करालीं विस्तृतिम् (पुनानः) पावकः। शोधकः (या) तनूः (लोहिनी) म० २१। लोहमयी (ताम्) विस्तृतिम् (ते) तव (अग्नौ) ज्ञाने (जुहोमि) ददामि। त्यजामि ॥

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    विषय

    कृष्णा, रुशती, लोहिनी

    पदार्थ

    १. (स्वर्ग:) = [स्वः गच्छति] प्रकाश को प्राप्त होनेवाला व्यक्ति (तन्वम्) = अपने शरीर को (बहुधा) = नाना प्रकार से (विचक्रे) = विशिष्ट [भिन्न-भिन्न] रूपों में करता है। वैसे-वैसे ही वह इस कार्य को कर पाता है, (यथा) = जिस-जिस प्रकार वह इस तनू को (आत्मन्) = अपने अन्दर (अन्यवर्णाम् विदे) = विलक्षण वर्णीवाली जान पाता है। वह देखता है कि जिस अजा [प्रकृति] से उसका यह शरीर बना है वह अजा लोहित, शुक्ल व कृष्णावर्णा है। उसका शरीर व शरीरस्थ मन भी परिणामतः लोहित, शुक्ल व कृष्णावृत्तियोंवाला है। ये वृतियाँ ही क्रमश: 'राजसी, सात्त्विक व तामसी' कहलाती हैं। ३. यह (स्वर्ग:) = प्रकाश को प्राप्त होनेवाला व्यक्ति (कृष्णाम् अपाजैत्) = कृष्णावर्णा तामसीवृत्ति को अपने से दूर करता है-इसे सुदूर पराजित करके नष्ट करनेवाला होता है। (रुशतीम्) = दीप्त [Bright] सात्त्विकी वृत्ति को (पुनानः) = पवित्र व परिमार्जित करता है और (या लोहिनी) = जो रक्तवर्णा राजसी वृत्ति है, (ते ताम्) = हे प्रभो! आपकी बनाई हुई उस वृत्ति को (अग्नौ जुहोमि) = प्रगतिशीलता में आहुत [अर्पित] करता हूँ, अर्थात् रजोगुण का वह 'स्वर्ग' [प्रकाश की ओर चलनेवाला व्यक्ति] इतना ही लाभ लेने का प्रयत्न करता है कि इसकी क्रियाशीलता बनी रहे, अर्थात् यह रजोगुण उसे सत्त्वगुण में आगे बढ़ने में सहायक हो।

    भावार्थ

    हम अपने अन्दर विविध वर्ण की वृत्तियों को जानकर तामसीवृत्ति को दूर करें, सात्त्विक वृत्ति को अधिकाधिक पवित्र करते हुए राजसी वृत्ति को उसकी सहायिका बनाएँ, अर्थात् रजोगुण के कारण सत्वगुण क्रियाशील बना रहे और हम सात्विक भावों में आगे बढ़ते चलें।

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    भाषार्थ

    (स्वर्गः) विशिष्ट-सुख की ओर गमन कहने वाला व्यक्ति, (यथाविदे) यथार्थज्ञानी (आत्मन्) आत्मा के आश्रय में विद्यमान (तन्वम्) निज तनू को (बहुधा) बहुविध अर्थात् (अन्यवर्णाम्) अन्यान्य वर्णों वाली (विचक्रे) विशेष प्रयत्न द्वारा करता है। (कृष्णाम्) काली अर्थात् तामसिक तनू पर (अजैत्) विजय पाता है, (रुशतोम्) चमकती अर्थात् सात्त्विक तनू को (पुनान) पवित्र करता रहता है, [हे स्वर्गेच्छु!] (या) जो (ते) तेरी (लोहिनी) रजोमयी तनू है (ताम्) उसे (अग्नौ) ज्ञान अग्नि में (जुहोमि) मैं तेरा आचार्य आहुत करता हूं।

    टिप्पणी

    [तीन प्रकार की तनुए आत्मा की होती हैं। एक तो कृष्णा, स्थूल शरीरमयी। दूसरी मन और इन्द्रियमयी, इसे लोहिनी अर्थात् रजोमयी कहा है। तीसरी बुद्धिमयी इसे रुशती कहा है। आश्रम का आचार्य रजोमयी तनू को ज्ञानाग्नि के सुपुर्द करता है। "ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन (गीता)]

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    (स्वर्गः) सुखमय लोक, मोक्ष में जाने वाला पुरुष (तन्वं) अपनी देह को (बहुधा) बहुत प्रकार से (वि चक्रे) विकृत करता है, उसको नाना प्रकार से बदल लेता है। (यथा) जब वह (आत्मन्) अपने आत्मा में उसको (अन्य वर्णाम्) अपने से भिन्न वर्ण को देखता है। तब अपनी वास्तविक (रुशताम्) दीप्तिमती, ज्योतिष्मती प्रज्ञा को (पुनानः) और अधिक पवित्र करता हुआ (कृष्णाम्) अपनी काली, पापमयी तामसी वृत्ति को (अप अजैत्) दूर ही नष्ट कर देता है। और मैं परमत्मा हे जीव ! (ते) तेरी (या) जो (लोहिनी) लाल रंग की राजसी वृत्ति है (ताम्) उसको (अग्नौ) अग्नि, अपने ज्ञानमय तेज में (जुहोमि) स्वाहा करता हूं। राजपतक्ष में—(यथा आत्मन् अन्यवर्णाम् विदे) जब अपने में राजा अपने पद से विपरीत पोशाक को देखता है तब (स्वर्गः) वह उत्तम राष्ट्र को प्राप्त करने वाला राजा (बहुधा तन्वं विचक्रे) बहुत प्रकार से अपने तनु = वस्त्र भूषा को विविध प्रकार से बनाता है। (रुशतीं पुनानः कृष्णाम् अपाजैत्) उजली पोशाक को पहन कर मैली को दूर फेंक देता है। (या लोहिनी ताम् अग्नौ जुहोमि) जो लोहिनी, लाल पोशाक है उसको मैं पुरोहित अग्नि में आहुति देता हूं अर्थात् लाल पोशाक अमि-रूप राजा को प्रदान करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    The soul desirous of rising to the state of paradisal bliss, knowing itself as the soul, raises and transforms its existential body in many ways, from one colour and character to another and higher in quality. Conquering its dark character and purifying it, it rises to the bright and transparent, i.e., from flesh and blood of its gross body and from the blood and passion of its mind, it rises to the crystalline purity of intelligence. O man of noble ambition, I offer your nature and character of flesh and blood and passion into the fire of karmic and spiritual yajna and transform your being into pure and free soul.

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    Translation

    The heaven-goer hath variously changed his body, as he finds in himself one of another color; he hath conquered off the black one, purifying a shining one; the one that is red, that I offer to thee in the fire.

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    Translation

    The heavenly region transfers its splendor in many forms, as that it finds in it a different color. Taking bright in to fold removes dark away. What is the rednesstf of it I, the Yajna fined fire in which I drop oblation.

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    Translation

    An aspirant after salvation brings about various changes in his body. When with his spiritual eye, he sees the body as different from his real self, he, purifying his bright intellect, suppresses his dark sinful behavior. I, O soul, burn thy passionate nature with the fire of my knowledge!

    Footnote

    I: God Passionate: Rajsi

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५४−(तन्वम्) विस्तृतिम्। सृष्टिम् (स्वर्गः) सुखप्रापकः परमेश्वरः (बहुधा) विविधप्रकारेण (वि) विशेषेण (चक्रे) रचितवान् (यथा) येन प्रकारेण (विदे) नकारलोपः। अहं विन्दे। लभे (आत्मन्) परमात्मनि (अन्यवर्णाम्) भिन्नभिन्नरूपाम् (अप अजैत्) अजयत्। अवश्यं जितवान्। वशीकृतवान् (कृष्णाम्) कालीम्। अन्धकारयुक्ताम् (रुशतीम्) रुश हिंसायाम्−शतृ। हिंसन्तीम्। करालीं विस्तृतिम् (पुनानः) पावकः। शोधकः (या) तनूः (लोहिनी) म० २१। लोहमयी (ताम्) विस्तृतिम् (ते) तव (अग्नौ) ज्ञाने (जुहोमि) ददामि। त्यजामि ॥

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