अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 38
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
56
उपा॑स्तरी॒रक॑रो लो॒कमे॒तमु॒रुः प्र॑थता॒मस॑मः स्व॒र्गः। तस्मि॑ञ्छ्रयातै महि॒षः सु॑प॒र्णो दे॒वा ए॑नं दे॒वता॑भ्यः॒ प्र य॑च्छान् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । अ॒स्त॒री॒: । अक॑र: । लो॒कम् । ए॒तम् । उ॒रु: । प्र॒थ॒ता॒म् । अस॑म: । स्व॒:ऽग: । तस्मि॑न् । श्र॒या॒तै॒ । म॒हि॒ष: । सु॒ऽप॒र्ण: । दे॒वा: । ए॒न॒म् । दे॒वता॑भ्य: । प्र । य॒च्छा॒न् ॥३.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
उपास्तरीरकरो लोकमेतमुरुः प्रथतामसमः स्वर्गः। तस्मिञ्छ्रयातै महिषः सुपर्णो देवा एनं देवताभ्यः प्र यच्छान् ॥
स्वर रहित पद पाठउप । अस्तरी: । अकर: । लोकम् । एतम् । उरु: । प्रथताम् । असम: । स्व:ऽग: । तस्मिन् । श्रयातै । महिष: । सुऽपर्ण: । देवा: । एनम् । देवताभ्य: । प्र । यच्छान् ॥३.३८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वान् !] तूने (एतम्) इस [पुरुष] को (उप अस्तरीः) बढ़ाया और (लोकम्) दर्शनीय (अकरः) बनाया है, (उरुः) विस्तृत (असमः) व्याकुलतारहित (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला व्यवहार (प्रथताम्) बढ़े। (तस्मिन्) उस [सुखव्यवहार] में (महिषः) महान् (सुपर्णः) बड़ी पूर्तिवाला [वह पुरुष] (श्रयातै) आश्रय लेवे, (देवाः) विद्वान् लोग (एनम्) इस [सुखव्यवहार] को (देवताभ्यः) आनन्दों के लिये (प्र यच्छान्) देवें ॥३८॥
भावार्थ
विद्वानों का कर्तव्य है कि संसार में सुख के साधनों को फैलाकर सब को सुखी करके आप भी सुखी होवें ॥३८॥
टिप्पणी
३८−(उप अस्तरीः) विस्तारितवानसि (अकरः) कृतवानसि (लोकम्) दर्शनीयम् (एतम्) पुरुषम् (उरुः) विस्तीर्णः (प्रथताम्) प्रख्यातो भवतु (असमः) षम वैकल्ये−अच्। वैकल्यरहितः (स्वर्गः) सुखप्रापको व्यवहारः (तस्मिन्) सुखव्यवहारे (श्रयातै) श्रिञ् सेवायाम्−लेट्। श्रयतु। सेवताम् (महिषः) अविमह्योष्टिषच्। उ० १।४५। मह पूजायाम्−टिषच्। महान्। पूजनीयः (सुपर्णः) पॄ पालनपूरणयोः−न। बहुपूर्तिमान् (देवाः) विद्वांसः (एनम्) सुखव्यवहारम् (देवताभ्यः) मोदानां प्राप्तये (प्र यच्छान्) लेटि रूपम्। प्र यच्छन्तु। ददतु ॥
विषय
महिषः सुपर्णः
पदार्थ
१. (उप अस्तरी:) = तूने उस अमृत प्रभु को अपना उपस्तरण बनाया है-प्रभु की गोद में बैठा है। इस प्रकार (एतं लोकं अकर:) = इस प्रकाश को-आलोक को प्राप्त [सिद्ध] किया है। अब तेरे लिए यह (उरु:) = विशाल (असम:) = [षम वैक्लव्ये] सब व्याकुलताओं से शून्य (स्वर्ग: प्रथताम्) = सुखमय लोक विस्तृत हो। प्रभुस्मरण व प्रकाश के होने पर हमारा लोक क्यों न स्वर्ग बनेगा? २. (तस्मिन्) = उस स्वर्ग में वह (छ्र्यातै) = आश्रय करता है, जोकि (महिष:) = [मह पूजायाम्] प्रभु का पूजन करनेवाला और (सुपर्ण:) = उत्तम पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मों में व्याप्त रहता है। (एनम्) = इस महिष सुपर्ण' को (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (देवताभ्य:) = दिव्यवृत्तियों के लिए (प्रयच्छान्) = प्राप्त कराएँ। यह साधक देवों के सम्पर्क में दिव्यवृत्तिवाला बने।
भावार्थ
प्रभु की गोद में स्थित होने व प्रकाश प्राप्त करने पर जीवन सुखमय बनता है। इस स्वर्ग में-सुखमय जीवन में वही निवास करता है जो प्रभुपूजन करता हुआ सर्वभूतहितरत रहता है। देवों के सम्पर्क में यह सदा देववृत्तिवाला बनता है।
भाषार्थ
(उप अस्तरीः) तूने आसन बिछाने आदि कर्म कर दिये, (एतम् लोकम् अकरः) इस नवीन लोक अर्थात् आश्रम को तूने प्राप्त कर लिया है। (असमः) जिसकी समता का और कोई आश्रम नहीं, वह (स्वर्गः) विशिष्ट सुख प्रापक आश्रम (उरुः प्रथताम्) खूब फैले, अर्थात् इस आश्रम में बहुत व्यक्ति आए, या इस आश्रम की स्थिति भिन्न-भिन्न स्थानों में हो जाय। (तस्मिन्) उस आश्रम में (महिषः) एक महान् (सुपर्णः) सब का उत्तमरूप में पालन-पोषण करने वाला आचार्य (श्रयातै) निवास करे। (देवाः) स्थानीय दिव्य लोग (एनम्) इसे (देवताभ्यः) आश्रम के दिव्य व्यक्तियों के प्रति (प्र यच्छान्) सौंप दें।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
हे राजन् ! तू (एतम्) इस (लोकम्) लोक को (अकरः) स्वयं उत्तम रूप से बनाता है और (उप अस्तरीः) स्वयं उसको फैलाता है। यह लोक (असमः स्वर्गः) जिसके समान दूसरा कोई नहीं ऐसा स्वर्ग, सुखमय स्थान (उरुः प्रथताम्) खूब बढ़े, और फैले, विस्तृत हो। (तस्मिन्) उस लोक में (सुपर्णः) उत्तम पालन और ज्ञान साधनों से सम्पन्न (महिषः) महान् शक्तिशाली राजा स्वयं (श्रयातै) विद्यमान है (एनं) उस लोक, राष्ट्र को (देवाः) विद्वान् ऐश्वर्यवान् लोग (देवताभ्यः) स्वयं देवता के समान पुरुषों के हाथ (प्र यच्छान्) सौंप देते हैं। परमात्मा के पक्ष में स्पष्ट है।
टिप्पणी
(च०) ‘प्रयच्छात्’ ‘प्रयच्छन्’ इति च क्वचित्। ‘अपास्कारैरेकरो’ (तृ०) ‘तस्मैसुपर्णो महिषः श्रयाते’ इति पैप्प सं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
You have spread out your mattress and fully attained to this new phase of life. Let this incomparable phase which leads to heavenly bliss expand wide and high. Let the one mighty supama, elevated soul, rest and shine as the sun in this phase and may all divinities of heaven and earth extend their love and devotion for the joy of his mind and senses.
Translation
Thou hast strewn on, hast made that world; let the broad unequalled heavenly world spread itself out; to it shall resort the’ mighty eagle; the gods shall reach him forth to the deities.
Translation
O God You create this world (the earth) extend it in broad space. You create this unepualled wide sky where therein find support the tremendous sun. The rays of the sun gives this sun (the light and energy of the sun) to other mysterious forces and world.
Translation
O King, thou thyself buildest and advancest this state. May this state, a peerless paradise make full progress! The mighty king, equipped with knowledge rules over it. The learned place the state in the hands of able, efficient persons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३८−(उप अस्तरीः) विस्तारितवानसि (अकरः) कृतवानसि (लोकम्) दर्शनीयम् (एतम्) पुरुषम् (उरुः) विस्तीर्णः (प्रथताम्) प्रख्यातो भवतु (असमः) षम वैकल्ये−अच्। वैकल्यरहितः (स्वर्गः) सुखप्रापको व्यवहारः (तस्मिन्) सुखव्यवहारे (श्रयातै) श्रिञ् सेवायाम्−लेट्। श्रयतु। सेवताम् (महिषः) अविमह्योष्टिषच्। उ० १।४५। मह पूजायाम्−टिषच्। महान्। पूजनीयः (सुपर्णः) पॄ पालनपूरणयोः−न। बहुपूर्तिमान् (देवाः) विद्वांसः (एनम्) सुखव्यवहारम् (देवताभ्यः) मोदानां प्राप्तये (प्र यच्छान्) लेटि रूपम्। प्र यच्छन्तु। ददतु ॥
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