अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
91
जनि॑त्रीव॒ प्रति॑ हर्यासि सू॒नुं सं त्वा॑ दधामि पृथि॒वीं पृ॑थि॒व्या। उ॒खा कु॒म्भी वेद्यां॒ मा व्य॑थिष्ठा यज्ञायु॒धैराज्ये॒नाति॑षक्ता ॥
स्वर सहित पद पाठजनि॑त्रीऽइव । प्रति॑ । ह॒र्या॒सि॒ । सू॒नुम् । सम् । त्वा॒ । द॒धा॒मि॒ । पृ॒थि॒वीम् । पृ॒थि॒व्या । उ॒खा । कु॒म्भी । वेद्या॑म् । मा । व्य॒थि॒ष्ठा॒: । य॒ज्ञ॒ऽआ॒यु॒धै: । आज्ये॑न । अति॑ऽसक्ता ॥३.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
जनित्रीव प्रति हर्यासि सूनुं सं त्वा दधामि पृथिवीं पृथिव्या। उखा कुम्भी वेद्यां मा व्यथिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषक्ता ॥
स्वर रहित पद पाठजनित्रीऽइव । प्रति । हर्यासि । सूनुम् । सम् । त्वा । दधामि । पृथिवीम् । पृथिव्या । उखा । कुम्भी । वेद्याम् । मा । व्यथिष्ठा: । यज्ञऽआयुधै: । आज्येन । अतिऽसक्ता ॥३.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे प्रजा ! स्त्री वा पुरुष] (प्रति) निश्चय करके (हर्यासि) [परस्पर] प्यार कर, (जनित्री इव) जैसे माता (सूनुम्) पुत्र को, (पृथिवीम् त्वा) तुझ प्रख्यात को (पृथिव्या) प्रख्यात [विद्या] के साथ (सं दधामि) मैं [परमेश्वर] संयुक्त करता हूँ। (वेद्याम्) वेदी [अंगीठी आदि] के ऊपर (यज्ञायुधैः) यज्ञ के शस्त्रों से (आज्येन) घी के साथ (अतिवक्ता) दृढ़ जमाई हुई (उखा) हाँडी [वा] (कुम्भी) बटलोयी [के समान] (मा व्यथिष्ठाः) तू मत डगमगा ॥२३॥
भावार्थ
सब स्त्री-पुरुष वेद द्वारा विद्या प्राप्त करके परस्पर प्रीतिपूर्वक रहें और कठिनाई पड़ने पर निरन्तर धर्म में जमे रहें, जैसे दृढ़ जमाई हुई कढ़ाही आदि भट्टे चूल्हे आदि पर निरन्तर ठहरी रहती है ॥२३॥
टिप्पणी
२३−(जनित्री) जनयित्री। जननी (इव) यथा (प्रति) निश्चयेन (हर्यासि) लेटि रूपम्। हर्य। परस्परं कामयस्व (सूनुम्) पुत्रम् (सम्) संयुज्य (दधामि) धरामि (पृथिवीम्) म० २२। प्रख्याताम् (पृथिव्या) प्रख्यातया विद्यया सह (उखा) पाकपात्रम् (कुम्भी) स्थाली (वेद्याम्) अग्न्याधारे (मा व्यथिष्ठाः) व्यथां मा प्राप्नुहि (यज्ञायुधैः) यज्ञोपकरणैः (आज्येन) घृतेन सह (अतिवक्ता) षञ्ज सङ्गे−क्त। अतिदृढीकृता ॥
विषय
परस्पर स्नेह व यज्ञशीलता
पदार्थ
१. प्रभु प्रजा से कहते हैं कि तू (प्रतिहर्यासि) = प्रत्येक के साथ इसप्रकार स्नेह करनेवाली हो, (इव) = जैसेकि (जनित्री सूनुम्) = माता पुत्र को प्रेम करती है। (पृथिवीं त्वा) = शक्तियों के विस्तारवाली तुझको (पृथिव्या) = शक्ति-विस्तार के साथ (संदधामि) = सम्यक् धारण करता हूँ। परस्पर प्रेम से वर्तना भी शक्तियों की स्थिरता का साधन बनता है। २. तु उसी प्रकार (मा व्यथिष्ठा:) = व्यथित न हो, जैसेकि (वेद्याम्) = वेदी में (यज्ञायुधैः) = यज्ञ के उपकरणों के साथ (आज्येन अतिषक्ता) = घृत से अतिशयेन मेलवाली (उखा) = कुण्ड व (कुम्भी) = जलपात्र पीड़ित न हों, अर्थात् तेरे घर में यज्ञ होते रहें और तेरा जीवन सर्वथा सुखमय बना रहे।
भावार्थ
हम परस्पर प्रेम से वरतें तथा हमारे घरों में यज्ञों की परिपाटी ठीक प्रकार से चलती रहे। इसप्रकार हमारी शक्तियाँ सुस्थिर रहेगी और हमारा जीवन सुखमय बनेगा।
भाषार्थ
(जनित्री इव) माता जैसे (सुनुम्) पुत्र को, वैसे हे पृथिवी ! तू इसे (प्रति हर्यासि) चाह। (त्वा पृथिवीम्) हे उखा और कुम्भी ! तुझ पृथिवी रूप को (पृथिव्या) पृथिवी के साथ (सं दधामि) मैं सम्बद्ध करता हूं। (उखा कुम्भी) हे उखा और कुम्भी ! (वेद्याम्) वेदी में (मा व्यथिष्ठाः) तू व्यथा को प्राप्त न हो, (यज्ञायुधैः) यज्ञ के आयुधों द्वारा (आज्येन) तथा घृत द्वारा (अतिषक्ता) दृढ़ रूप से तू टिकाई गई और सिक्त हुई हैं। अतिषक्ता = अति (दृढ़तया) + सक्ता (षच् समवाए), टिकाई गई तथा सिक्त हुई।
टिप्पणी
[उखा का सम्बन्ध अग्निचयन में होता है। उखा में अग्नि को यजमान वर्ष भर जलाए रखता है, तत्पश्चात् गार्हपत्य और आह्वनीय में इस अग्नि को डाल कर आहुतियां दी जाती हैं। उखा और वेदि शब्दों द्वारा गृहस्थ की पाकशाला को, यज्ञशाला का रूप दिया गया है, क्योंकि गृहस्थ को भी पञ्चमहायज्ञ करने होते हैं। अतः ओदन के पकाने के लिये गृहस्थ को अंगीठी और हण्डिया की आवश्यकता है। उखा = अंगीठी और कुम्भी = हण्डिया। अथवा गृहस्थ में भी एक पृथक् यज्ञशाला निर्माण की सूचना इन शब्दों द्वारा दी गई है। यज्ञायुधैः = ध्रुवा, उपभृत् स्रुक्, स्रुव आदि-यज्ञ सम्बन्धी आयुध हैं, उपकरण हैं]
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
हे पृथिवि ! तू (जनित्री सूनुम् इव) माता जिस प्रकार पुत्र को प्यार से अपने गोद में ले लेती है उसी प्रकार तू मुझे (प्रति हर्यासि) प्रेम करती है (वा) तुझ (पृथिवीम्) पृथिवी को (पृथिव्या) पृथिवी से ही (संदधामि) जोड़ देता हूं तू (उखा) हांडी या उखा रूप में या (कुम्भी) कुम्भी, घड़े, मटके आदि के रूप में होकर भी (वेद्याम्) वेदी में (मा व्यथिष्ठाः) खेद को मत प्राप्त हो। वहां तू (यज्ञायुधैः) यज्ञ के उपकरणों द्वारा (आज्येन) घृत से (अतिषक्ता) युक्त होकर रहती है। स्वर्गमय राज्य की सिद्धि के लिये पृथिवी या राष्ट्र को स्वर्गौदन से उपमा देने के लिये उखा और कुम्भी के रूप में पृथ्वी का वर्णन किया है अर्थात् जैसे हंडे में अन्न तैयार होता है उसी प्रकार पृथ्वी में अन्न तैयार होता है, इत्यादि।
टिप्पणी
(तृ०) ‘कुम्भीर्वेद्यां संचरन्ताम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
I place you, Prthivi, the human soul in body form, together with Prthivi, the world of nature. Mother Nature, as a mother loves her child, so pray love your child. Just as the pan and the pot do not feel afflicted in the fire as they get baked and tempered, so you too, o man, do not get afflicted in the fiery vedi of life armed as you are with the fighting powers of yajna and tempered as you are with the flames of ghrta fire.
Translation
Mayest thou welcome as a mother a son; I unite thee, that art earth with the earth; a kettle, a vessel, do not stagger upon the sacrificial hearth, overhung by the implements of offering (and) by sacrificial butter.
Translation
As mother is filled with affection towards her son so the per former of Yajna has a longing for the Yajna pots. I, the priest set the ground on the earth and unite it, so that the jug,butter pot on the Yajnavedi stand firmly, as these are conjoined with Yajna apparatus and butter.
Translation
O subjects, just as mother lovingly takes the son in her lap, so do I unite thee, the renowned, with knowledge. Stagger not, stand firmly, just as pot and jar do on fire conjoined with sacrificial gear and butter.
Footnote
I : God
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३−(जनित्री) जनयित्री। जननी (इव) यथा (प्रति) निश्चयेन (हर्यासि) लेटि रूपम्। हर्य। परस्परं कामयस्व (सूनुम्) पुत्रम् (सम्) संयुज्य (दधामि) धरामि (पृथिवीम्) म० २२। प्रख्याताम् (पृथिव्या) प्रख्यातया विद्यया सह (उखा) पाकपात्रम् (कुम्भी) स्थाली (वेद्याम्) अग्न्याधारे (मा व्यथिष्ठाः) व्यथां मा प्राप्नुहि (यज्ञायुधैः) यज्ञोपकरणैः (आज्येन) घृतेन सह (अतिवक्ता) षञ्ज सङ्गे−क्त। अतिदृढीकृता ॥
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