Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    40

    स॒प्त मेधा॑न्प॒शवः॒ पर्य॑गृह्ण॒न्य ए॑षां॒ ज्योति॑ष्माँ उ॒त यश्च॒कर्श॑। त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वता॒स्तान्स॑चन्ते॒ स नः॑ स्व॒र्गम॒भि ने॑ष लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । मेधा॑न् । प॒शव॑: । परि॑ । अ॒गृ॒ह्ण॒न् । य: । ए॒षा॒म् । ज्योति॑ष्मान् । उ॒त । य: । च॒कर्श॑ । त्रय॑:ऽत्रिंशत्। दे॒वता॑: । तान् । स॒च॒न्ते॒ । स: । न॒: । स्व॒ऽगम् । अ॒भि । ने॒ष॒ । लो॒कम् ॥३.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त मेधान्पशवः पर्यगृह्णन्य एषां ज्योतिष्माँ उत यश्चकर्श। त्रयस्त्रिंशद्देवतास्तान्सचन्ते स नः स्वर्गमभि नेष लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । मेधान् । पशव: । परि । अगृह्णन् । य: । एषाम् । ज्योतिष्मान् । उत । य: । चकर्श । त्रय:ऽत्रिंशत्। देवता: । तान् । सचन्ते । स: । न: । स्वऽगम् । अभि । नेष । लोकम् ॥३.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (पशवः) सब जीवों ने (सप्त) सात [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] (मेधान्) परस्पर मिले हुए [पदार्थों] को (परि अगृह्णन्) ग्रहण किया है, (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस [वसु आदि] (देवता) देवता (तान्) उन [जीवों] को (सचन्ते) सेवते हैं, (यः) जो [पुरुष] (एषाम्) इन [जीवों] में से (ज्योतिष्मान्) तेजस्वी है, (उत) और (यः) जिसने [विज्ञान को] (चकर्श) सूक्ष्म किया है, (सः) वह तू (नः) हमको (स्वर्गम्) सुख पहुँचानेवाले (लोकम् अभि) समाज में (नेष) पहुँचा ॥१६॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों में त्वचा, नेत्र, कान आदि समान हैं और सब पर वसु आदि प्राकृत पदार्थों का समान प्रभाव है, परन्तु विज्ञानी पुरुष ही आप सुखी रहते और सब को सुखी रखते हैं ॥१६॥ सप्त मेघान् के विषय में (सप्तऋषयः) पद देखो−अ० ४।११।९। और तेंतीस देवता यह हैं−८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य वा महीने, १ इन्द्र वा बिजुली, १ प्रजापति वा यज्ञ−इन की विशेष व्याख्या अ० १०।७।१३। के भावार्थ में देखो ॥

    टिप्पणी

    १६−(सप्त) सप्तसंख्याकान् (मेधान्) मिधृ मेधृ संगमे हिंसामेधयोश्च−घञ्। परस्परसंगतान् त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिरूपान् पदार्थान्। यज्ञान्−निघ० ३।१७। (पशवः) जीवाः (पर्यगृह्णन्) स्वीकृतवन्तः (यः) विद्वान् (एषाम्) पशूनां मध्ये (ज्योतिष्मान्) तेजस्वी (उत) अपि (यः) (चकर्श) कृश तनूकरणे−लिट्। सूक्ष्मीकृतवान् विज्ञानम् (त्रयस्त्रिंशत्) वस्वादयः−अ० १०।७।१३। (देवताः) देवाः (तान्) जीवान् (सचन्ते) सेवन्ते (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (अभि) प्रति (नेष) अ० ७।९७।२। णीञ् प्रापणे−लेट्, सिप्। नय। प्रापय (लोकम्) समाजम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सममेध परिग्रह व स्वर्गलोक

    पदार्थ

    १. (पशवः) = [पश्यन्ति] देखनेवाले-विचारशील पुरुषों में (सप्तमेधान्) = [सप्तर्षिभिः साध्यान् मेधान् सस मेधान्] 'कर्णाविमौ, नासिके, चक्षणी, मुखम्' दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुखरूप समर्षियों से साध्य यज्ञों का पर्यगृहन-परिग्रह किया है [येन यज्ञस्तायते सतहोता] (तान्) = उनको (त्रयस्त्रिशद्) = तेतीस (देवता सचन्ते) = देव प्राप्त होते हैं-'पृथिवी, अन्तरिक्ष व युलोक' में स्थित ग्यारह-ग्यारह-सब तेतीस देव इनके शरीर में निवास करते हैं [सर्वा ह्यस्मिन्देवता गावो गोष्ठ इवासते]। इनके शरीर में सब देवों की सुस्थिति होती है-सब दिव्यगुण इन्हें प्राप्त होते हैं। २. (य:) = जो (एषाम्) = इनमें (ज्योतिष्मान्) = सर्वाधिक ज्योतिवाला है [तत्र निरतिशय सर्वज्ञबीजम्], (उत) = और (य:) = जो (चकर्श) = सूक्ष्मतम है, (स:) = वह सर्वज्ञ सूक्ष्मतम [निराकार] प्रभु (न:) = हमें (स्वर्ग लोकम् अभिनेष) = स्वर्गलोक की ओर ले-चलता है-हमें घरों को स्वर्गतुल्य बनाने की शक्ति प्रदान करता है।

    भावार्थ

    हम यज्ञों को अपनाएँगे तो दिव्यगुणों को प्राप्त करते हुए स्वर्ग को प्राप्त करनेवाले होंगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (पशवः) पशुओं ने (सप्त मेधान् = मेधाः) सात मेधाओं का (पर्यगृह्णन्) परिग्रह किया है, (एषाम्) इन पशुओं में (यः) जो (ज्योतिष्मान्) प्रशस्त ज्योति प्रर्थात् मेधावान् होता है, (उत) और (यः चकर्ष) जो मेधा में प्रकृष्ट है, (तान्=तम्) उस को (त्रयस्त्रिंशत्१) ३३ (देवताः) दिव्य शक्तियां (सचन्ते) प्राप्त होती है। (सः) वह ज्योतिष्मान् व्यक्ति (नः) हमें (स्वर्गम् लोकम् अभि) स्वर्ग लोक की ओर (नेष) ले चले, अर्थात् हमारे गृहस्थों को स्वर्गीय करे।

    टिप्पणी

    [सप्त मेधान् = सप्तमेधाः। सप्तमेधान् अर्थ है "सातयज्ञों को" और सप्तमेधाः का अर्थ है "सात प्रज्ञानों को"। मन्त्र में "सप्तमेधान्” सम्भवतः "सप्तमेधाः" वाचक हो। ज्योतिष्मान् पद के स्थान में अथर्ववेद की पैप्पलादशाखा में "मेधस्वान्" पठित है। सप्तमेधाः हैं, ५ ज्ञानेन्द्रियां, १ मन, १ बुद्धि। इन्हें यजुर्वेद में सात ऋषि भी कहा है, यथा "सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे" (३४।५५)। तथा "अत्रासत ऋषयः सप्त साकम्" (ऋ० १०।८।९) में भी मस्तिष्क में ७ ऋषियों का स्थान दर्शाया है। "सप्तमेधान्" का अर्थ है "सातयज्ञ"। ये कौन से सात यज्ञ हैं जिन का कि परिग्रह पशुओं ने किया हुआ है, ज्ञात नहीं। ५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और बुद्धि तो सब पंशुओं में है, किन्हीं में कम और किन्हीं में अधिक। सम्भवतः यजुर्वेदोक्त ७ ऋषियों को निजस्थानों में यज्ञकर्ताओं के रूप में अधिकतर माना है। पशवः = वेद की दृष्टि में ५ प्रकार के पशु अधिक उपयोगी मान कर उन्हें ५ विभागों में विभक्त किया है। यथा “तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः" (अथर्व० ११।२।९)। इन सब में सप्तमेधाएं विद्यमान हैं] [१. ये ३३ देवता शरीरगत शारीरिक और मानसिक दिव्य शक्तियां प्रतीत होती हैं, आधिदैविक नहीं। आधिदैविक ३३ देवों की प्राप्ति अशक्य है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    (पशवः) पशु, समस्त जीव (सप्त मेधान्) सात अन्नों को (परि अष्टान्) भोजन के रूप में प्राप्त करते हैं। और (नय-स्त्रिंशत्) तेतीस (देवताः) देव गण (तान्) उन जीवों या अन्नों के साथ (सचन्ते) समवाय या देह रूप से संघ बनाते हैं। (एषां) इन देवताओं में से (यः) जो (ज्योतिष्मान्) सबसे अधिक प्रकाशमान् स्वतः प्रकाश (उत) और (यः चकर्श) जो सबसे सूक्ष्म है (सः) वह प्रजापति परमात्मा (नः) हमें (स्वर्गम् लोकम्) सुखमय लोक को (अभि नेप) प्राप्त करावे। सप्त अन्नों का रहस्य देखी बृहदारण्यक उपः [१। ५]

    टिप्पणी

    अन्नं मेधः। मेधायेत्यन्नायेत्येतत्। श० ७। २। ३२॥ अन्न, हुत ,प्रहुत, पयः, मनः, वाक्, प्राण, ये सात मेघ या अन्न है, इनको प्रजापति ने मेधा अपनी ज्ञान शक्ति से उत्पन्न किया। (तृ०) ‘ताम् सचन्ते’ इति क्वचित्। (द्वि०) ‘मेधस्वानुतपश्चकर्ष’ (च०), ‘नेषि’ इति पैप्प सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    All living beings especially humans have received seven organs of perception, volition and discrimination, (these are eyes, ears, nose tongue and the skin, with mind (mana) and intelligence (Buddhi). All thirty-three divinities (eight Vasus, eleven Rudras, twelve Adityas, Indra and Prajapati) are associated with these and co-operate with these. That person who is the most enlightened and most boldly creative may, we wish and pray, lead us to the state of paradise on earth.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Seven sacrifices the cattle enclosed --which of them was full of light, and which was pining; to them thirty deities attach themselves; do thou conduct us unto the heavenly world.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    All the living creatures assume in their bodies seven kinds of formative elements (Saptadhatus). Thirty three great cosmic powers cooperate them. He who is most effulgent amongst these powers and is of rare nature send us to the state of light and pleasure.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    All souls have held the seven mutually united organs. The thirty three forces accompany them. Out of those souls, may one that is bright and master of subtle knowledge take us to the pleasant society of the learned.

    Footnote

    Seven organs: Skin, Eye, Ear, Nose, Tongue, Mind, Intellect. Thirty-three forces: Eight Vasus, Eleven Rudras, Twelve Adityas, Indra, Praja Pati.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(सप्त) सप्तसंख्याकान् (मेधान्) मिधृ मेधृ संगमे हिंसामेधयोश्च−घञ्। परस्परसंगतान् त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिरूपान् पदार्थान्। यज्ञान्−निघ० ३।१७। (पशवः) जीवाः (पर्यगृह्णन्) स्वीकृतवन्तः (यः) विद्वान् (एषाम्) पशूनां मध्ये (ज्योतिष्मान्) तेजस्वी (उत) अपि (यः) (चकर्श) कृश तनूकरणे−लिट्। सूक्ष्मीकृतवान् विज्ञानम् (त्रयस्त्रिंशत्) वस्वादयः−अ० १०।७।१३। (देवताः) देवाः (तान्) जीवान् (सचन्ते) सेवन्ते (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (अभि) प्रति (नेष) अ० ७।९७।२। णीञ् प्रापणे−लेट्, सिप्। नय। प्रापय (लोकम्) समाजम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top