अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 35
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
76
ध॒र्ता ध्रि॑यस्व ध॒रुणे॑ पृथि॒व्या अच्यु॑तं॒ त्वा दे॒वता॑श्च्यावयन्तु। तं त्वा॒ दंप॑ती॒ जीव॑न्तौ जी॒वपु॑त्रा॒वुद्वा॑सयातः॒ पर्य॑ग्नि॒धाना॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठध॒र्ता । ध्रि॒य॒स्व॒ । ध॒रुणे॑ । पृ॒थि॒व्या: । अच्यु॑तम् । त्वा॒ । दे॒वता॑: । च्य॒व॒य॒न्तु॒ । तम् । त्वा॒ । दंप॑ती॒ इति॑ दम्ऽप॑ती । जीव॑न्तौ । जी॒वऽपु॑त्रौ । उत् । वा॒स॒या॒त॒: । परि॑ । अ॒ग्नि॑ऽधाना॑त् ॥३.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
धर्ता ध्रियस्व धरुणे पृथिव्या अच्युतं त्वा देवताश्च्यावयन्तु। तं त्वा दंपती जीवन्तौ जीवपुत्रावुद्वासयातः पर्यग्निधानात् ॥
स्वर रहित पद पाठधर्ता । ध्रियस्व । धरुणे । पृथिव्या: । अच्युतम् । त्वा । देवता: । च्यवयन्तु । तम् । त्वा । दंपती इति दम्ऽपती । जीवन्तौ । जीवऽपुत्रौ । उत् । वासयात: । परि । अग्निऽधानात् ॥३.३५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे वीर !] तू (धर्ता) धर्ता [धारण करनेवाला] होकर (पृथिव्याः) पृथिवी के (धरुणे) धारण में (ध्रियस्व) दृढ़ रह, (अच्युतम् त्वा) तुझ निश्चल को (देवताः) देवता [विद्वान् लोग] (च्यवयन्तु) सहन करें। (तम् त्वा) उस तुझको (जीवन्तौ) जीवते हुए [पुरुषार्थी] (जीवपुत्रौ) जीवते [पुरुषार्थी] पुत्रोंवाले (दम्पती) दोनों पति-पत्नी (परि) सब ओर से (अग्निधानात्) ज्ञान के आधार [होने के कारण] से (उत्) उत्कर्षता से, (वासयातः) निवास करावें ॥३५॥
भावार्थ
जो विद्वान् पराक्रमी दृढ़स्वभाव पुरुष प्रजापालन में चतुर हो, विद्वान् लोग उसका आश्रय लेवें, और ऐसे पुत्र से माता-पिता पुत्रवान् होकर उसको उच्च बनावें ॥३५॥
टिप्पणी
३५−(धर्ता) धारकः सन् (ध्रियस्व) धृतः स्थिरो भव (धरुणे) धारणे (पृथिव्याः) भूमिराज्यस्य (अच्युतम्) च्युङ् गतौ−क्त। निश्चलम् (त्वा) वीरम् (देवताः) विद्वांसः (च्यवयन्तु) च्यु हसने सहने च। सहन्ताम् (तम्) (तादृशम्) (त्वा) (दम्पती) जायापती (जीवन्तौ) प्राणान् धरन्तौ पुरुषार्थं कुर्वन्तौ (जीवपुत्रौ) जीविता पुरुषार्थयुक्ताः पुत्रा ययोस्तौ (उत्) उत्कर्षेण (वासयातः) लेट्। निवासयताम् (परि) सर्वतः (अग्निधानात्) ज्ञानधारणकारणात् ॥
विषय
प्रभु-दर्शन के लिए तीन बातें
पदार्थ
१. हे प्रभो! आप (धर्ता) = धारण करनेवाले हैं। (पृथिव्याः धरुणे) = इस शरीररूप पृथिवी के धारण होने पर (धियस्व) = आप हमारे हदयों में धारण किये जाएँ, अर्थात् हम अपने हृदयों में आपका धारण करनेवाले बनें। संयम द्वारा शरीर को स्वस्थ रखकर हम हृदयों में आपका धारण करनेवाले हों। (अच्युतं त्वा) = [imperishable] अक्षर [अविनाशी] आपको (देवता:) = देववृत्ति के पुरुष (च्यावयन्तु) = अपने हृदयों में चुवाने [स्थापित करने] का प्रयत्न करें [make. form, create, bring abour]| देववृत्ति के बनकर हम हदयों में आपका दर्शन करनेवाले हों। २. (तं त्वा) = उन आपको (दम्पती) = पति-पत्नी (जीवन्तौ) = स्वयं उत्कृष्ट जीवन को धारण करते हुए (जीवपुत्रौ) = जीवित पुत्रोंवाले होते हुए (परि) = [Very much, excessively] खूब ही (अग्निधानात्) = कुण्ड में यज्ञाग्नि के आधान के द्वारा (उद्वासयात:) = अपने हृदयों में उत्कर्षेण बसाते हैं। यज्ञों को करते हुए ये पवित्र जीवनवाले बनकर हृदय में आपका दर्शन करते हैं।
भावार्थ
हृदय में प्रभुदर्शन के लिए आवश्यक है कि हम [क] संयम द्वारा शरीर को स्वस्थ रक्खें [धरुणे पृथिव्याः], [ख] देववृत्ति के बनें [देवताः], [ग] खूब ही यज्ञशील हों [परिअग्निधानात]।
भाषार्थ
(धर्ता) धारण करने वाला तू (पृथिव्याः धरुणे) समग्र पृथिवी के धारण-पोषण के निमित्त, (ध्रियस्व) अपने-आप का धारण कर; (अच्युतं त्वा) गृह कार्यों से न-विरत हुए तुझ को (देवताः) दिव्य गुणी सज्जन (च्यावयन्तु) गृह-कार्यों से विरत कराएं। (जीवन्तौ) जीवित, (जीवपुत्रौ) जीवित पुत्रों वाले (दम्पती) जाया और पति (तं त्वा) उस तुझे को (अग्निधानात् परि) अग्न्याधान सम्पाद्य कर्म से (उदवासयातः) उद्वासित करें, छुड़ा दें।
टिप्पणी
[गृह का धारण करने वाला ६० वर्षों की आयु में भी यदि गृहकार्यो से विरत नहीं हुआ, तो दिव्य सज्जन उसे सदुपदेश दे कर गृहकार्यों से छुड़ा दें, ताकि आश्रम-व्यवस्था अक्षुण्ण रूप में चलती रहे, और उसे कहें कि तुम्हारे दम्पती अर्थात् पुत्र और वधू जीवित है, इस लिये गृहकार्यों को वे सम्भाल लेंगे, उन के पुत्र भी जीवित हैं, इस लिये वंश परम्परा भी बनी रहेगी, तू अब समग्र पृथिवी की सेवा में अपने-आप को व्यापृत कर]
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
हे राजन् ! (धर्त्ता) तू समस्त पृथ्वी या राष्ट्र का धारण करने हारा होकर (पृथिव्याः) पृथिवी के (धरुण) धारण करने के कार्य में या प्रतिष्ठित पदपर (ध्रियस्व) स्थापित किया जाय। (अच्युतं) अपने कर्तव्यपथ से कभी च्युत न होने वाले (त्वा) तुझको भी (देवताः) विद्वान् राजसभा के सदस्यगण (च्यावयन्तु) तुझे अपने पद से च्युत करने में समर्थ हैं। (तं) ऐसे प्रमादशून्य राजसभा के अधीन (त्वा) तुझको (जीवपुत्रौ) अपने जीवित पुत्रों सहित (जीवन्तौ) स्वयं जीते हुए (दम्पती) गृहस्थ स्त्री पुरुष पतिपत्निभाव से बद्ध होकर (अनिधानात् परि) अपने गृह में अग्नि आधान करने अर्थात् ईश्वरोपासना या देवपूजा से उतर कर अन्य लौकिक सब कार्यों से ऊपर तुझे (उद् वासयातः) उत्कृष्टपद पर स्थापित करें।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘पृथिव्या च्युतं देवता’ (तृ०) ‘जीवपुत्रवुदवासयाथः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
O house-holder, be firm, divinely supported on the firm foundation of the earth. Stay unshaken, let the divinities inspire you to move on on the path of yajnic living. And when you have done your job, call it a day, let living, inspiring wedded couples with living jovial children help you be released and relieved of your duties to the divine fire of yajna.
Translation
A maintainer, maintain thyself in the maintenance of the earth: thee that art unmoved let the deities make to move; thee shall the two spouses, living having living sons, cause to remove out of the fire-holder.
Translation
This fire as supporter stands firm on the breast of earth. Let the men of enlightenment stir this fire for Yajna which is unstired. Let the living wife and husband with their living children, remove the fire from its place and establish in the place of Yajna.
Translation
O King, thou art the supporter of the Earth. May thou be installed in an eminent position in the world. The learned tolerate thee, who never falters in his duty. May living man and wife with living children establish thee in their house in an exalted position in their worldly affairs!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३५−(धर्ता) धारकः सन् (ध्रियस्व) धृतः स्थिरो भव (धरुणे) धारणे (पृथिव्याः) भूमिराज्यस्य (अच्युतम्) च्युङ् गतौ−क्त। निश्चलम् (त्वा) वीरम् (देवताः) विद्वांसः (च्यवयन्तु) च्यु हसने सहने च। सहन्ताम् (तम्) (तादृशम्) (त्वा) (दम्पती) जायापती (जीवन्तौ) प्राणान् धरन्तौ पुरुषार्थं कुर्वन्तौ (जीवपुत्रौ) जीविता पुरुषार्थयुक्ताः पुत्रा ययोस्तौ (उत्) उत्कर्षेण (वासयातः) लेट्। निवासयताम् (परि) सर्वतः (अग्निधानात्) ज्ञानधारणकारणात् ॥
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