अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 15
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
38
वन॒स्पतिः॑ स॒ह दे॒वैर्न॒ आग॒न्रक्षः॑ पिशा॒चाँ अ॑प॒बाध॑मानः। स उच्छ्र॑यातै॒ प्र व॑दाति॒ वाचं॒ तेन॑ लो॒काँ अ॒भि सर्वा॑ञ्जयेम ॥
स्वर सहित पद पाठवन॒स्पति॑: । स॒ह । दे॒वै: । न॒: । आ । अ॒ग॒न् । रक्ष॑: । पि॒शा॒चान् । अ॒प॒ऽबाध॑मान: । स: । उत् । श्र॒या॒तै॒ । प्र । व॒दा॒ति॒ । वाच॑म् । तेन॑ । लो॒कान्। अ॒भि । सर्वा॑न् । ज॒ये॒म॒ ॥३.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पतिः सह देवैर्न आगन्रक्षः पिशाचाँ अपबाधमानः। स उच्छ्रयातै प्र वदाति वाचं तेन लोकाँ अभि सर्वाञ्जयेम ॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पति: । सह । देवै: । न: । आ । अगन् । रक्ष: । पिशाचान् । अपऽबाधमान: । स: । उत् । श्रयातै । प्र । वदाति । वाचम् । तेन । लोकान्। अभि । सर्वान् । जयेम ॥३.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
(वनस्पतिः) सेवनीय शास्त्र का रक्षक [विद्वान् पुरुष] (रक्षः) राक्षस [विघ्न] और (पिशाचान्) मांसभक्षक [मनुष्य रोग आदिकों] को (अपबाधमानः) हटाता हुआ (देवैः सह) अपने उत्तम गुणों के साथ (नः) हम में (आ अगन्) आया है। (सः) वह (उत् श्रयातैः) ऊँचा चढ़े और (वाचम्) वेदवाणी का (प्र वदाति) उपदेश करे, (तेन) उस [विद्वान्] के साथ (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (अभि) सब ओर से (जयेम) हम जीतें ॥१५॥
भावार्थ
जब ब्रह्मचारी विद्वान् लोग अपने अज्ञान आदि दोषों को हटाकर विद्या से उच्च पद पाकर उपदेश करते हैं, तब लोग कष्टों से छूटकर सुखी होते हैं ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(वनस्पतिः) वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालको विद्वान्−यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२१। (सह) (देवैः) उत्तमगुणः (नः) अस्मान् (आ अगन्) अ० २।९।३। आ−अगमत्। प्राप्तवान् (रक्षः) राक्षसम्। विघ्नम् (पिशाचान्) मांसभक्षकान् मनुष्यरोगादीन् (अपबाधमानः) निवारयन् (सः) विद्वान् (उच्छ्रयातै) लेटि रूपम्। उच्छ्रित उन्नतो भूयात् (प्र वदाति) उपदिशेत् (वाचम्) वेदवाणीम् (तेन) विदुषा सह (लोकान्) अभि) अभितः (सर्वान्) (जयेम) जयेन प्राप्नुयाम ॥
विषय
वानस्पतिक भोजन का महत्त्व
पदार्थ
१. (वनस्पति:) = पवित्र वानस्पतिक भोजन (देवैः सह) = दिव्यगुणों के साथ (न: आगन्) = हमें प्राप्त हो। हम वानस्पतिक भोजन ही करें। इस प्रकार मांसाहार से आ जानेवाली स्वार्थ व क्रूरता आदि की वृत्तियों से बचे रहें। यह भोजन (रक्षः) = रोगकृमियों को (पिशाचान्) = पैशाचिक वृत्तियों को (अपबाधमान:) = हमसे दूर रक्खे। २. (स:) = वानस्पतिक भोजन करनेवाला वह 'यम' [संयमी पुरुष] (उच्छ्यातै) = उत्कृष्ट मार्ग का सेवन करता है। यह (वाचं प्रददाति) = स्तुतिवचनों का उच्चारण करता है। (तेन) = इस प्रकार की वृत्ति के द्वारा (सर्वान् लोकान् अभिजयेम) = हम सब लोकों का विजय करनेवाले बनें । पृथिवीलोक, अन्तरिक्षलोक व द्युलोक का विजय करते हुए ब्रहालोक को प्राप्त करें।
भावार्थ
वानस्पतिक भोजन हमें दिव्यवृत्तिवाला बनाता है-राक्षसीभावों को दूर करता है। हम उत्कृष्ट जीवनवाले बनकर प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले बनते हैं और सब लोकों का विजय करते हुए ब्रह्मलोक को प्रास करते हैं।
भाषार्थ
(देवैः सह) दिव्यगुणों वाला (वनस्पतिः) वृक्ष-निर्मित मुसल (नः आगन) हमें प्राप्त हुआ है, यह (रक्षः पिशाचान्) रोगवीजरूपी राक्षसों और पिशाचों को दूर करता है। (सः) वह (उच्छ्रयातै) ऊपर की ओर उठे और [नीचे की और आता हुआ] (वाचं प्र वदाति) आवाज करे। (तेन) उस के सहारे मानो (सर्वान् लोकान् अभि जयेम) सब लोकों पर हम विजय पाएं।
टिप्पणी
["वनस्पति" द्वारा मुसल का वर्णन किया है। मुसल ऐसे वृक्ष की लकड़ी का होना चाहिये जो कि रोगनिवारक हो। रक्षः = वे रोग या रोग-कीटाणु जो कि स्वास्थ्य या वृद्धि को रोक देते हैं (रक्षयितव्यमस्मादिति रक्षः)। पिशाचान् = शरीर के मांस का ह्रास करने वाले रोग या किटाणु। पिशाच = पिश = पिशित (मांस) + च (चमु अदने), मांसक्षय, सुखारोग (Marasmus रोग)। मन्त्र १४, १५ में ऊखल-मुसल द्वारा स्वयं तण्डुल तय्यार करने का निर्देश दिया है]।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
(वनस्पत्तिः) महान् वृक्ष के समान सबको अपनी छत्रछाया में रखने वाला चक्रवर्ती राजा (सह देवैः) विद्वान् पुरुषों और अन्य शासकों सहित (रक्षः पिशाचान्) राक्षसों और पिशाचों को (अपबाधमानः) मार कर दूर भगाता हुआ (नः आगन्) हमें प्राप्त हो। (सः) वह (उत् श्रयातै) सबसे ऊंचा होकर सब के शिर पर विराजे और (वाचं) वाणी को (प्र वदाति) कहे सब को आज्ञा करे या सब को शिक्षा प्रदान करे। (तेन) उसके बल से हम (सर्वान् लोकान्) समस्त लोकों को (अभि जयेम) अपने वश करें उन पर विजयी हो।
टिप्पणी
(तृ०) ‘सौच्छ्रयातै’, (च०) ‘अधिसर्वान्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
This forest gift and this scholar of nature’s forest gifts has come to us with the divine energies of nature, protecting us against blood sucking and life threatening negativities of the environment. Rising high, he speaks to us words of health care and freedom from disease with which, we pray, we may win gifts of the earth, environment and all other regions of space.
Translation
The forest tree hath come to us together with the gods, forcing off the demon, the piŝācas; he shall rise up, shall speak forth his voice; with him may we conquer all worlds.
Translation
Let this Vanaspatih: fire destroying diseases come into our knowledge and experiment with all its mysterious powers and attributes. This rises up (in many forms) and becomes the source of making loud sound. By the medium of this let us conquer all the people and places.
Translation
The guardian of religious lore, overcoming all obstacles and ailments, hath come unto us with his excellent traits. May he progress, and preach the Vedic truths. May we win all the worlds with his help.
Footnote
(वनस्पते) वनस्य सम्भजनीयस्य शास्त्रस्य पालक- यथा दयानन्दभाष्य यजु ० 27-21.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(वनस्पतिः) वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालको विद्वान्−यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२१। (सह) (देवैः) उत्तमगुणः (नः) अस्मान् (आ अगन्) अ० २।९।३। आ−अगमत्। प्राप्तवान् (रक्षः) राक्षसम्। विघ्नम् (पिशाचान्) मांसभक्षकान् मनुष्यरोगादीन् (अपबाधमानः) निवारयन् (सः) विद्वान् (उच्छ्रयातै) लेटि रूपम्। उच्छ्रित उन्नतो भूयात् (प्र वदाति) उपदिशेत् (वाचम्) वेदवाणीम् (तेन) विदुषा सह (लोकान्) अभि) अभितः (सर्वान्) (जयेम) जयेन प्राप्नुयाम ॥
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