Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 59
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    42

    ध्रु॒वायै॑ त्वा दि॒शे विष्ण॒वेऽधि॑पतये क॒ल्माष॑ग्रीवाय रक्षि॒त्र ओष॑धीभ्य॒ इषु॑मतीभ्यः। ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑। दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्रु॒वायै॑ । त्वा॒ । दि॒शे । विष्ण॑वे । अधि॑ऽपतये । क॒ल्माष॑ऽग्रीवाय । र॒क्षि॒त्रे । ओष॑धीभ्य: । इषु॑ऽमतीभ्य: । ए॒तम् । परि॑। द॒द्म॒: । तम् । न॒: । गो॒पा॒य॒त॒ ।आ । अ॒स्माक॑म् । आऽए॑तो: । दि॒ष्टम् । न॒: । अत्र॑ । ज॒रसे॑ । नि । ने॒ष॒त् । ज॒रा । मृ॒त्यवे॑ । परि॑ । न॒:। द॒दा॒तु॒ । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ध्रुवायै त्वा दिशे विष्णवेऽधिपतये कल्माषग्रीवाय रक्षित्र ओषधीभ्य इषुमतीभ्यः। एतं परि दद्मस्तं नो गोपायतास्माकमैतोः। दिष्टं नो अत्र जरसे नि नेषज्जरा मृत्यवे परि णो ददात्वथ पक्वेन सह सं भवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ध्रुवायै । त्वा । दिशे । विष्णवे । अधिऽपतये । कल्माषऽग्रीवाय । रक्षित्रे । ओषधीभ्य: । इषुऽमतीभ्य: । एतम् । परि। दद्म: । तम् । न: । गोपायत ।आ । अस्माकम् । आऽएतो: । दिष्टम् । न: । अत्र । जरसे । नि । नेषत् । जरा । मृत्यवे । परि । न:। ददातु । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥३.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 59
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (ध्रुवायै दिशे) नीचेवाली दिशा में जाने के निमित्त (विष्णवे) सर्वव्यापक, (अधिपतये) अधिष्ठाता, (कल्माषग्रीवाय) हरित रंगवाले−[वृक्ष आदि] का ग्रीवावाले, [रक्षित्रे] रक्षक परमेश्वर को (इषुमतीभ्यः) बाणवाली [विषैली] (ओषधीभ्यः) ओषधियों के हटाने के लिये (एतम्) इस (त्वा) तुझे [जीवात्मा को] ..... [मन्त्र ५५] ॥५९॥

    भावार्थ

    मन्त्र ५५ देखो ॥५६॥

    टिप्पणी

    ५९−(ध्रुवायै दिशे) म० ५५। अधःस्थां दिशां गन्तुम् (विष्णवे) सर्वव्यापकाय (कल्माषग्रीवाय) कल्माषा हरितवर्णा वृक्षादयो ग्रीवावद् यस्य तस्मै (इषुमतीभ्यः ओषधीभ्यः) बाणवतीर्हिंसावतीर्वौषधीर्निवारयितुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ध्रुवायै दिशे

    पदार्थ

    १. उन्नति के मार्ग पर चलनेवाले के लिए प्रभु निर्देश करते हैं कि (एतं त्वा) = इस तुझे (ध्रुवायै दिशे) = ध्रुवा दिशा के लिए अर्पित करता हूँ। तूने जीवन में ध्रुव बनना है-स्थिरवृत्ति का। डौंवाडोल वृत्तिवाला व्यक्ति कभी उन्नति नहीं करता। (विष्णवे अधिपतये) = विष्णु इस दिशा का अधिपति है-व्यापक उन्नति करनेवाला । यह 'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों को स्वस्थ बनाकर सब क्षेत्रों में उन्नतिवाला होता है। (कल्माषग्रीवाय रक्षित्रे) = इस ध्रुवा दिशा का रक्षिता कल्माषग्रीव है-विविध विज्ञानों से चित्रित कण्ठवाला। (ओषधीभ्यः इषुमतीभ्यः) = सब दोषों का दहन करनेवाली ये ओषधियाँ इस ध्रुवता की प्रेरणा दे रही हैं। दोषों का दहन करके हम उन्नति की ध्रुव नींव डालते हैं। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    उन्नति की स्थिरता के लिए ध्रुवता नितान्त आवश्यक है। इस ध्रुवता का अधिपति विष्णु है-'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों को स्वस्थ बनानेवाला। विविध विज्ञानों से चित्रित कण्ठवाला व्यक्ति इस ध्रुवता का रक्षक है। 'ध्रुवता से ही दोषों का दहन होगा,' ओषधियाँ यह प्रेरणा दे रही हैं। ओषधियाँ दोषों का दहन तो करती ही हैं [उष दाहे]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (ध्रुवायै दिशे) ध्रुवादिशा के लिये, (अधिपतये विष्णवे) ध्रुवादिशा के स्वामी, किरणों द्वारा व्याप्त सूर्य के लिये (कल्माषग्रीवाय रक्षित्रे) विविधरूपों वाली वनस्पतियों की माला जिसने मानों ग्रीवा में पहनी हुई है ऐसे (रक्षित्रे) रक्षक सूर्य के लिये, (इषुमतीभ्यः ओषधीभ्यः) वाणों वाली ओषधियों के लियेः– तथा (अधिपतये विष्णवे) जगत् के अधिपति सर्वव्यापक परमेश्वर के लिये, (कल्माषग्रीवाय) पापमल का निगीर्ण करने वाले (रक्षित्रे) सर्वरक्षक परमेश्वर के लिये, (इषुमतीभ्यः) वाणों वाली सर्वोषधिरूप परमेश्वर के लियेः– (एतं त्वा) इस तुझ को० । दिष्टं नो० पूर्ववत् (५५)

    टिप्पणी

    [ध्रुवा दिशा = पृथिवी। पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न स्थानों की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हो जाती हैं। यथा मसूरी की अपेक्षया देहरादून नगर दक्षिण में, और हरिद्वार की अपेक्षया उत्तर में, सहारनपुर की अपेक्षया पूर्व में, तथा ऋषिकेश की अपेक्षया पश्चिम में है। इस प्रकार पूर्व आदि दिशाएं ध्रुव नहीं, स्थिररूप नहीं। परन्तु पृथिवी सदा ध्रुवरूपा है। कल्माषग्रीवः = सूर्यपक्ष में कल्माष का अर्थ है "विविधरूपी" (Variegated, आप्टे), तथा परमेश्वर पक्ष में कल्माष का अर्थ है मल, पाप (Dirt, sin, आप्टे)। परमेश्वर सच्चे उपासकों के चित्त के मलों तथा पापों को निगीर्ण कर देता है, ग्रीवा= गॄ निगरणे। ओषधीभ्यः- सूर्य पक्ष में ओषधयः का अर्थ है "ओषद् धयन्ति; दोषं धयन्ति" (निरुक्त ९।३।२७), अर्थात् जलन पैदा करने वाले रोग को जो पी जाती है, या वात-पित्त-कफ आदि दोषों को जो पी जाती है। रोग निवारण करने के कारण ओषधियां इषु या वाण रूप हैं। ओषधीभ्यः- परमेश्वर पक्ष में परमेश्वर दैहिक, ऐन्द्रियिक तथा मानसिक और आध्यात्मिक रोगों तथा मलों और पापों के निवारण में महौषधि रूप है ! यथा:- भेषजमसि भेषजं गवेऽम्वाय पुरुषाय भेषजम्। सुखं मेषाय मेष्यै॥ (यजु ३।५९)। मन्त्र में परमेश्वर को भेषज कहा है। [भिषज् चिकित्सायाम्] महर्षि दयानन्द “भेजषम् = परमेश्वर। महीधर "भेषजम् = रुद्र। रुद्र भी आध्यात्मिक शक्ति है]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    (ध्रुवायै त्या दिशे) ध्रुवा पृथ्वी और उसकी तरफ़ की सदा ध्रुव स्थिर रहने वाली दिशा के समान अचल (विष्णवे अधिपतये) सर्व व्यापक अधिपति (कल्माषग्रीवाय रक्षित्रे) हरे, लाल, नीले श्वेत आदि नाना वर्ण के ओषधि वृक्ष वनस्पतियों की नाना मालाओं को मानो अपने गले में धारण करने वाले, उनके परिपोषक, रक्षक और (ओषधीभ्यः इषुमतीभ्यः) ओषधियां जिस प्रकार रोगों और रोग-जन्तुओं को अपने वीर्य से दूर करती हैं उस प्रकार सब बाधाओं को दूर करने हारे तुझको (एतं नः परिदद्मः० इत्यादि) हम अपना यह देह या राष्ट्र सौंपते हैं। इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    ‘रक्षित्रे वीरुदभ्यः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    We deliver you unto the lower quarter, to Vishnu, lord protector pervader of greenery, and to the penertrative efficacy of herbs. May Vishnu protect this our brother on his onward journey. May this lord guide us to our destined goal till the completion and fulfilment of our existence on earth and deliver us to death and divine judgement for our onward journey with the ripeness of our karma and maturity of our existential self.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    To the fixed quarter, to Vishnu as overlord, to the spottednecked (serpent) as defender, to the herbs having arrows we commit thee here; guard you etc. etc.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    For taking use from them, we offer oblation in Yajna fire to the name of region down below, Vishnu, controlling the region, Kalma shgriva, protecting all, medicinal plants various power as arrows for diseases. Let......rest is like previous.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    We present thee, O soul, to the lower region, to the All-pervading God, to God, the Nourisher of the trees of different hues, to God, the Remover of all impediments like medicines of diseases! O learned persons, preserve the soul for us, for free actions! May God conduct us to noble deeds, to full old age. May old age deliver us to death. May we then unite with the Unwavering God.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५९−(ध्रुवायै दिशे) म० ५५। अधःस्थां दिशां गन्तुम् (विष्णवे) सर्वव्यापकाय (कल्माषग्रीवाय) कल्माषा हरितवर्णा वृक्षादयो ग्रीवावद् यस्य तस्मै (इषुमतीभ्यः ओषधीभ्यः) बाणवतीर्हिंसावतीर्वौषधीर्निवारयितुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top