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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 25
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    54

    पू॒ताः प॒वित्रैः॑ पवन्ते अ॒भ्राद्दिवं॑ च॒ यन्ति॑ पृथि॒वीं च॑ लो॒कान्। ता जी॑व॒ला जी॒वध॑न्याः प्रति॒ष्ठाः पात्र॒ आसि॑क्ताः॒ पर्य॒ग्निरि॑न्धाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒ता: । प॒वित्रै॑: । प॒व॒न्ते॒ । अ॒भ्रात् । दिव॑म् । च॒ । यन्ति॑ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । लो॒कान् । ता: । जी॒व॒ला: । जी॒वऽध॑न्या: । प्र॒ति॒ऽस्था: । पात्रे॑ । आऽसि॑क्ता: । परि॑ । अ॒ग्नि: । इ॒न्धा॒म् ॥३.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूताः पवित्रैः पवन्ते अभ्राद्दिवं च यन्ति पृथिवीं च लोकान्। ता जीवला जीवधन्याः प्रतिष्ठाः पात्र आसिक्ताः पर्यग्निरिन्धाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूता: । पवित्रै: । पवन्ते । अभ्रात् । दिवम् । च । यन्ति । पृथिवीम् । च । लोकान् । ता: । जीवला: । जीवऽधन्या: । प्रतिऽस्था: । पात्रे । आऽसिक्ता: । परि । अग्नि: । इन्धाम् ॥३.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (पवित्रैः) शुद्ध व्यवहारों से (पूताः) शुद्ध किये गये [प्रजाजन−मन्त्र २७] (अभ्रात्) उपाय से (पवन्ते) [दूसरों को] शुद्ध करते हैं, वे (दिवम्) जय की इच्छा को (च) और (पृथिवीम्) प्रख्यात विद्या को (च) और (लोकान्) दर्शनीय घरों को (यन्ति) प्राप्त होते हैं। (ताः) उन (जीवलाः) जीवते हुए, (जीवधन्याः) जीवों में धन्य, (प्रतिष्ठाः) दृढ़ जमे हुए, (पात्रे) रक्षासाधन [ब्रह्म] मे (आसिक्ताः) भली-भाँति सींचे हुए [प्रजा जनों] को (अग्निः) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर (परि) सब ओर से (इन्धाम्) प्रकाशमान करे ॥२५॥

    भावार्थ

    जो स्त्री-पुरुष अपने शुद्ध आचरणों से जय पाने के लिये उत्तम विद्याएँ और उत्तम गुण प्राप्त करते हैं, उन पुरुषार्थी प्रशंसनीय जनों को परमेश्वर अपने नियम से कीर्तिमान् करता है ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(पूताः) शोधिताः−म० २७। (पवित्रैः) शुद्धाचारैः (पवन्ते) शोधयन्ति (अभ्रात्) अभ्र गतौ−अप्। ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।२८। अभ्रमुपायं संसाध्य (दिवम्) विजिगीषाम् (च) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (पृथिवीम्) प्रख्यातां विद्याम् (च) (लोकान्) दर्शनीयान् निवासान्, (ताः) प्रजाः−मा २७ (जीवलाः) अ० ६।५९।३। सिध्मादिभ्यश्च। पा० ५।२।९७। जीव्−लच् मत्वर्थे। जीवनयुक्ताः (जीवधन्याः) जीवेषु प्रशस्ताः (प्रतिष्ठाः) प्रतिष्ठां प्राप्ताः (पात्रे) रक्षासाधने ब्रह्मणि (आसिक्ताः) समन्तात् सेचनयुक्ताः (परि) सर्वतः (अग्निः) प्रकाशस्वरूपः परमेश्वरः (इन्धाम्) दीपयतु ॥

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    विषय

    एक तुरीयाश्रमी का चित्रण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित चतुर्थाश्रम की प्रजाएँ (पवित्रैः पूता:) = [नहि ज्ञाने सदृशं पवित्रमिह विद्यते] पवित्रता के साधनभूत ज्ञान से पवित्र बने हुए (पवन्ते) = गतिशील होते हैं। (अभ्रात्) = [अभ्र गतौ] गतिशीलता के द्वारा (दिवं च यन्ति) = मास्तिष्करूप धुलोक को प्राप्त करते हैं, (पृथिवीम्) = इस शरीररूप पृथिवीलोक को प्राप्त करते हैं (च) = और (लोकान्) = शरीर के अन्य अङ्ग-प्रत्यङ्गों को ठीक रख पाते हैं। २. (ता:) = उन तुरीयाश्रमी प्रजाओं को, जोकि (जीवला:) = जीवनशक्ति से पूरिपूर्ण है, (जीवधन्या) = अपने जीवन को धन्य बनानेवाली (प्रतिष्ठा:) = स्थिरवृत्ति की हैं, पाने (आसिक्ताः) =[पात्रे आसिक्तं येषाम्] शरीररूप पात्र में शक्ति का सेचन करनेवाली होती हैं-पूर्णरूप से जितेन्द्रिय होती हई शक्ति का रक्षण करती हैं, उन्हें (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु (परि इन्धाम्) = सर्वतः दीप्त करनेवाले हों। प्रभुकृपा से इनका जीवन सर्वतः दीप्त-मलिनता से शून्य हो। इनका जीवन ही लोगों को प्रेरणा देनेवाला हो।

    भावार्थ

    एक संन्यस्त पुरुष ज्ञान से पवित्र जीवनवाला बनकर गतिशील होता है। गतिशीलता ही इसके मस्तिष्क, शरीर व सब अङ्गों को स्वस्थ रखती है। इन जीवनशक्ति से परिपूर्ण, धन्य जीवनवाले, स्थिरवृत्ति के जितेन्द्रिय पुरुषों को प्रभु दीप्त जीवनवाला बनाते हैं।

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    भाषार्थ

    (पवित्रैः) सूर्य की पवित्र रश्मियों द्वारा (पूताः) पवित्र हुए आपः अर्थात् जल (अभ्रात्) मेघ से (पवन्ते) आ कर हमें पवित्र करते हैं। ये (दिवम्) द्युलोक को, (च पृथिवीम्) और पृथिवी को, (च) और अन्तरिक्ष को (लोकान्) इन तीनों लोकों को (यन्ति) जाते हैं, (ताः) वे आपः अर्थात् जल (जीवलाः) जीवनप्रदान करते, (जीवधन्याः) प्राणियों के लिये धन्यवाद के योग्य हैं। (पात्रे आसिक्ताः) पात्र में डाले गये, (प्रतिष्ठाः) और पात्र में स्थित हुए जलों को (अग्निः) आग (परि इन्धाम्) सब ओर से प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    [तण्डुलों के परिपाक के लिये कुम्भी में जल डाल कर उन्हें अग्नि द्वारा प्रतप्त करने का निर्देश दिया है। जीवलाः = जीव + ला (आदाने)]।

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (अभ्राद्) मेघ से आते हुए जल (पवित्रैः) पवित्र करने वाले वायुओं द्वारा (पूताः) पवित्र होकर (दिवं च यन्ति) द्यौलोक में भी ऊपर उठ जाते हैं और (पृथिवीं च) पृथिवी लोक पर भी आते हैं और (ताः) वे जल या ‘आपः’ (जीवलाः) पृथ्वी पर जीवन को प्राप्त कराने वाले (जीवधन्याः) जीवों के लिये ‘धन’ होने योग्य (प्रतिष्ठाः) प्राणों की प्रतिष्ठा स्वरूप है। और जिस प्रकार में (पात्रे आसिक्ताः) पात्र हांडी आदि में डाले जाते हैं और उनको (अग्निः) अग्नि (परि इन्धाम्) चारों ओर से तप्त करती है उसी प्रकार (ताः) वे आप्त जन (पवित्रैः पूताः) पवित्र आचरणों से पवित्र होकर (अभ्रात्) अभ्र, गति-शील, सर्वव्यापक परमात्मा से, मेघ से जलों के समान (पवन्ते) आते हैं और (दिवं च पृथिवीम् च लोकान् च यन्ति) वे द्यौलोक, पृथिवी लोक और सूर्य आदि नाना लोकों को प्राप्त होते हैं। (ताः) वे आप जन (जीवलाः) अति दीर्घ जीवन धारण करने वाले (जीवधन्याः) जीवों में स्वयं धन्य अति श्रेष्ठ (पात्रे आसिक्ताः) पात्र में रखे जलों के समान (पात्रे आसिकाः) उचित स्थान में नियुक्त होकर (प्रतिष्ठाः) उत्तम रूप से, प्रतिष्ठा के पात्र होते हैं। उनको (अग्निः) ज्ञानमय, प्रकाशक परमेश्वर (परि इन्धाम्) सब प्रकार से ज्ञान प्रदान करके प्रकाशित करता है।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘पृथिवीं च धर्मणा’ (तृ०) ‘जीवधन्यात्समेताः पात्रासिक्तात्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    Showers of holy water, energised and purified by rays of the sun purify us. Indeed they reach the heaven, the earth and all other regions of space. Those showers of waters, full of life, blissful and beatifying, constant and unfailing, held in the jar of life, may the fire of yajna energise and thereby inspire us to the state of fire, passion and light of the spirit.

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    Translation

    Purified with purifiers, they purify themselves from the cloud; they go both to heaven and to earth (as their) worlds; them, lively, rich in life, firm-standing, poured into the vessel, let the fire kindle about.

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    Translation

    Drops, purified by the feltering forces (air, rays etc) flow from the rain-clouds and go to worlds. the earth and heaven Let life-giving drops quickening all the creatures and supporting plants etc, put into vessel be boiled by fire.

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    Translation

    Purified through virtuous deeds, they purify others through various devices. They acquire love for conquest, vast knowledge, and beautiful houses. Enjoying long life, being foremost among men, absorbed in God, they attain to fame. The Refulgent God, bestowing knowledge on them, makes them shine on every side.

    Footnote

    They : Noble persons, devotees of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(पूताः) शोधिताः−म० २७। (पवित्रैः) शुद्धाचारैः (पवन्ते) शोधयन्ति (अभ्रात्) अभ्र गतौ−अप्। ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।२८। अभ्रमुपायं संसाध्य (दिवम्) विजिगीषाम् (च) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (पृथिवीम्) प्रख्यातां विद्याम् (च) (लोकान्) दर्शनीयान् निवासान्, (ताः) प्रजाः−मा २७ (जीवलाः) अ० ६।५९।३। सिध्मादिभ्यश्च। पा० ५।२।९७। जीव्−लच् मत्वर्थे। जीवनयुक्ताः (जीवधन्याः) जीवेषु प्रशस्ताः (प्रतिष्ठाः) प्रतिष्ठां प्राप्ताः (पात्रे) रक्षासाधने ब्रह्मणि (आसिक्ताः) समन्तात् सेचनयुक्ताः (परि) सर्वतः (अग्निः) प्रकाशस्वरूपः परमेश्वरः (इन्धाम्) दीपयतु ॥

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