अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 30
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
43
उत्था॑पय॒ सीद॑तो बु॒ध्न ए॑नान॒द्भिरा॒त्मान॑म॒भि सं स्पृ॑शन्ताम्। अमा॑सि॒ पात्रै॑रुद॒कं यदे॒तन्मि॒तास्त॑ण्डु॒लाः प्र॒दिशो॒ यदी॒माः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । स्था॒प॒य॒ । सीद॑त: । बु॒ध्ने । ए॒ना॒न् । अ॒त्ऽभि: । आ॒त्मान॑म् । अ॒भि । सम् ।स्पृ॒श॒न्ता॒म् । अमा॑सि । पात्रै॑: । उ॒द॒कम् । यत् । ए॒तत् । मि॒ता: । त॒ण्डु॒ला: । प्र॒ऽदिश॑: । यदि॑ । इ॒मा: ॥३.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्थापय सीदतो बुध्न एनानद्भिरात्मानमभि सं स्पृशन्ताम्। अमासि पात्रैरुदकं यदेतन्मितास्तण्डुलाः प्रदिशो यदीमाः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । स्थापय । सीदत: । बुध्ने । एनान् । अत्ऽभि: । आत्मानम् । अभि । सम् ।स्पृशन्ताम् । अमासि । पात्रै: । उदकम् । यत् । एतत् । मिता: । तण्डुला: । प्रऽदिश: । यदि । इमा: ॥३.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे वीर !] (बुध्ने) तले पर (सीदतः) बैठे हुए (एनान्) इन [चावलों] को (उत् स्थापय) ऊँचा उठा, वे [चावल] (अद्भिः) जल के साथ (आत्मानम्) अपने को (अभि) सब प्रकार (सं स्पृशन्ताम्) मिला देवें। (पात्रैः) पात्रों [चमचे आदि] से, (यत्) जो कुछ (एतत्) यह (उदकम्) जल है, [उसे] (अमासि) मैंने नाप लिया है, (यदि) यदि (तण्डुलाः) चावल (इमाः प्रदिशः) इन दिशाओं में [बटलोही के भीतर] (मिताः) नापे गये हैं ॥३०॥
भावार्थ
जैसे रसोइया बटलोही के पेंदे में बैठे हुए चावलों को उठाकर जल से मिलाता है, और बार-बार जल और चावलों को नाप कर ठीक-ठीक पकाता है, वैसे ही मनुष्य यथावत् उपाय से दूसरों को उन्नत करके योग्य बनावें ॥३०॥
टिप्पणी
३०−(उत्थापय) ऊर्ध्वं धारय (सीदतः) उपविशतः (बुध्ने) मूले (एनान्) तण्डुलान् (अद्भिः) जलैः (आत्मानम्) (अभि) सर्वतः (संस्पृशन्ताम्) संयोजयन्तु (अमासि) माङ् माने−लुङ्। अहं परिमितवानस्मि (पात्रैः) चमसादिभिः (उदकम्) जलम् (यत्) (एतत्) (मिताः) परिमिताः (तण्डुलाः) (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः, प्रतीति शेषः (यदि) (इमाः) उखायां वर्तमानाः ॥
विषय
पात्रों द्वारा ज्ञान-प्रसार
पदार्थ
१.हे राजन! (बुध्ने) = तले [Bottom] में (सीदत:) = बैठे हुए-अतिनिकृष्ट स्थिति में पहुँचे हुए (एनान्) = इन प्राकृत जनों को (उत्थापय) = तू ऊपर उठा-इनके अन्दर तू ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराने का प्रयत्न कर। ये प्राकृत जन (अद्भिः) = ज्ञानजलों से (आत्मानं अभिसंस्पृशन्ताम्) = अपने को सब ओर से संसृष्ट करें। यह ज्ञानजल इनकी शुद्धि का कारण बने। २. (यत् एतत् उतकम्) = जो यह ज्ञानजल है, इसे तू (पात्रैः) = योग्य व्यक्तियों के द्वारा (अमासि) = [मा Assign, mete out] इन अध:पतित लोगों में प्राप्त कराता है, (यदि इमा: प्रदिश:) = यदि इन सब प्रकृष्ट दिशाओं में फैले हुए भी ये (तण्डुला:) = विध्वंसकारी पुरुष हैं तो भी वे (मिता:) = [Cast, thrown out] राष्ट्र से दूर कर दिये जाते हैं। ज्ञान-प्रकाश से इनके जीवन अपकर्षशून्य होने लगते हैं और वे भी धीमे-धीमे पवित्र जीवनवाले हो जाते हैं।
भावार्थ
राजा का यह कर्तव्य है कि पात्र [योग्य] व्यक्तियों द्वारा राष्ट्र में सर्वत: ज्ञान के प्रसार का प्रबन्ध करे, जिससे सब प्रजाएँ ज्ञान-जल में शुद्ध जीवनवाली बनकर ऊपर उठें राष्ट्र में किसी का जीवन अतिनिकृष्ट न रह जाए।
भाषार्थ
(बुध्ने सीदतः) कुम्भी के तल पर बैठे (एनान्) इन तण्डुलों को (उत्थापय) उठा, ताकि ये (अद्भिः) जलों के साथ (आत्मानम्) अपने आप का (अभि संस्पृशन्ताम्) सम्यक्-स्पर्श करें। (पात्रैः) पात्रों द्वारा (उदकम्) जल को (अमासि) तूने मापा है, (यत् एतत्) जोकि यह कुम्भी में है। (तण्डुलाः) तण्डुल भी (मिताः) मापे हुए है, (यदि) यदि (इमाः प्रदिशः) इन प्रकृष्ट निर्देशों को (अमासि) तू जानता है।
टिप्पणी
[पकाने वाले से कहा है कि तू तण्डुल पकाने के लिये, जल और तण्डुल के पारस्परिक अनुपात को जान ले। अमासि = अ + मा (मापना, और ज्ञान) + सि। तण्डुल पकने के पश्चात् अधिक जल को तण्डुलों के निकालने पर जल के घुले तण्डुल के कई पौष्टिक अंश व्यर्थ हो जाते है]।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
हे राजन् ! (एनान्) इन (बुध्ने) नीचे हांडी के तले पर (सीदतः) ताप से तप्त हुए, तले लगे चावलों के समान नीचे भूतल पर या नीचे शोचनीय दशा में पड़े इन लोगों को (उत्थापय) ऊपर उठा। और जिस प्रकार तले में लगे चावलों को जल डालकर कड़छी से गीला करके ऊपर उठा दिया जाता है उसी प्रकार हे राजन् (अद्भिः) जलों से और आप्त पुरुषों से ये नीचे गिरे लोग भी (आत्मानम्) अपने आत्मा को (अभि संस्पृशन्ताम्) साक्षात् शीतल करें और उठे। और (यत्) जिस प्रकार (एतत्) इस (उदकम्) जल को (पात्रैः) चमस आदि पात्रों से (अमासि) माप लेता हूं और उन पात्रों से ही (तण्डुलाः मिता) तण्डुल भात के चावल भी (मिताः) जान लिये जाते हैं उसी प्रकार (यदि) मानो (इमाः) ये (प्रदिशः) नाना दिशाएं या नाना दिशाओं में रहने वाले (तण्डुलाः = वसवः) जीव भी (पात्रैः) पालन करने वाले शासकों द्वारा (मिताः) जान लिये, एवं वश कर लिये जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
Raise the rice settled at the bottom of the pan so that the grains may mix with the water. You have measured the water in relation to the pot and the ladles as rice too has been measured in relation to the size and space of the pan.
Translation
Make thou them stand up as they sit on the bottom, let them touch themselves all over with the waters; I have measured with vessels the water that is here; measured are the ricegrains that are these directions
Translation
Let these rice-grains lying low in the bottom be turned up ward (in the vessel) let them be mingled and blent with waters. I who is cooking Odana, have measured these waters with pots and these rice grains spreading in many sides (in side the vessel) are also measured.
Translation
O King, uplift these degraded, despicable persons, lying low like rice grains at the bottom of the cauldron. Just as they are blent and mingled with waters,.so let these depraved persons elevate their souls in the company of learned persons. Just as I measure this water in the cauldron with a spoon or ladle, and the rice-grains are also measured, so these people living in different regions, are known and controlled by their rulers!
Footnote
They:Rice-grains.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(उत्थापय) ऊर्ध्वं धारय (सीदतः) उपविशतः (बुध्ने) मूले (एनान्) तण्डुलान् (अद्भिः) जलैः (आत्मानम्) (अभि) सर्वतः (संस्पृशन्ताम्) संयोजयन्तु (अमासि) माङ् माने−लुङ्। अहं परिमितवानस्मि (पात्रैः) चमसादिभिः (उदकम्) जलम् (यत्) (एतत्) (मिताः) परिमिताः (तण्डुलाः) (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः, प्रतीति शेषः (यदि) (इमाः) उखायां वर्तमानाः ॥
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