अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 36
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
53
सर्वा॑न्त्स॒मागा॑ अभि॒जित्य॑ लो॒कान्याव॑न्तः॒ कामाः॒ सम॑तीतृप॒स्तान्। वि गा॑हेथामा॒यव॑नं च॒ दर्वि॒रेक॑स्मि॒न्पात्रे॒ अध्युद्ध॑रैनम् ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वा॑न् । स॒म्ऽआगा॑: । अ॒भि॒ऽजित्य॑ । लो॒कान् । याव॑न्त: । कामा॑: । सम् । अ॒ती॒तृ॒प॒: । तान् । वि । गा॒हे॒था॒म् । आ॒ऽयव॑नम् । च॒ । दर्वि॑: । एक॑स्मिन् । पात्रे॑ । अधि॑ । उत् । ह॒र॒ । ए॒न॒म् ॥३.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वान्त्समागा अभिजित्य लोकान्यावन्तः कामाः समतीतृपस्तान्। वि गाहेथामायवनं च दर्विरेकस्मिन्पात्रे अध्युद्धरैनम् ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वान् । सम्ऽआगा: । अभिऽजित्य । लोकान् । यावन्त: । कामा: । सम् । अतीतृप: । तान् । वि । गाहेथाम् । आऽयवनम् । च । दर्वि: । एकस्मिन् । पात्रे । अधि । उत् । हर । एनम् ॥३.३६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे वीर !] (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (अभिजित्य) भले प्रकार जीतकर (सभागाः) तू आकर मिला है, (यावन्तः) जितनी (कामाः) कामनाएँ हैं, (तान्) उन सबको (सम्) यथावत् (अतीतृपः) तूने तृप्त किया है। (आयवनम्) मन्थन दण्डी (च) और (दर्विः) चमचा [दोनों] (एकस्मिन् पात्रे) एक पात्र में (वि गाहेथाम्) डूबें [हे वीर !] (एनम्) इस [आत्मा] को (अधि) अधिकारपूर्वक (उत् हर) ऊँचा ले चल ॥३६॥
भावार्थ
मनुष्य को योग्य है कि सब विघ्नों को पार करके शुभ कामनाओं को पूरा करे और एक परमात्मा में वा जगत् की रक्षा में तत्पर होकर आत्मा की उन्नति करता रहे, जैसे एक बटलोही में शाक आदि को दण्डी से कूटकर सिद्ध करते और चमचे से निकालते हैं ॥३६॥
टिप्पणी
३६−(सर्वान्) (सभागाः) सम्+आङ्+इण् गतौ−लुङ्। संभागतोऽसि (अभिजित्य) (लोकान्) (यावन्तः) (कामाः) इष्टपदार्थाः (सम्) सम्यक् (अतीतृपः) तर्पितवानसि (तान्) कामान् (वि) विविधम् (गाहेथाम्) थस्य तकारश्छान्दसः। गाहेताम्। निमग्ने भवताम् (आयवनम्) आङ्+यु मिश्रणामिश्रणयोः−ल्युट्। विलोडनदण्डः (च) (दर्विः) चमसः (एकस्मिन्) (पात्रे) भाजने (अधि) अधिकारपूर्वकम् (उत् हर) उच्चं प्राप्नुहि (एनम्) आत्मानम् ॥
विषय
प्रभु-प्राप्ति व सर्वकामाप्ति
पदार्थ
१. हे साधक! (सर्वान् लोकान् अभिजित्य) = शरीररूप 'पृथिवी', हदयरूप अन्तरिक्ष तथा मस्तिष्करूप 'धुलोक' इन सब लोकों को जीतकर, अर्थात् शरीर को स्वस्थ, हृदय को पवित्र तथा मस्तिष्क को दीस बनाकर (सम् आगा:) = तू प्रभु के समीप प्राप्त होनेवाला हो। प्रभु-प्राप्ति के द्वारा (यावन्तः कामा:) = जितनी भी अभिलाषाएँ हैं, (तान्) = उनका तू (सम् अतीतृपः) = सम्यक् तृप्त करनेवाला हो। प्रभु-प्रासि में सब कामनाएँ पूर्ण हो ही जाती हैं। २. इस साधक के जीवन को (आयवनम्) = [आ+यु-मिश्रणामिश्रणयोः] समन्तात् बुराइयों का अमिश्रण तथा अच्छाइयों का मिश्रण (च) = और (दर्वि:) = वासनाओं का विदारण (विगाहेथाम्) = [Pervade] विशेषरूप से व्यास करनेवाले हों। इस प्रकार हे साधक! तू (एनम्) = अपने इस जीवन को (एकस्मिन्) = उस अद्वितीय (पात्रे) = रक्षक प्रभु में (अधि उद्धर) = आधिक्येन उद्धृत करनेवाला बन-प्रभुस्मरण करता हुआ तू अपने जीवन का उद्धार कर। यह प्रभुस्मरण ही तुझे भव-सागर में डूबने से बचाएगा।
भावार्थ
हम 'शरीर, मन व मस्तिष्क' को स्वस्थ बनाते हुए प्रभु को प्राप्त करें। प्रभु प्राप्ति में सब कामनाएँ प्राप्त हो जाती हैं। हमारे जीवनों में बुराइयों का अमिश्रण व वासनाओं का विदारण विशेषरूप से हो। उस अद्वितीय रक्षक प्रभुस्मरण के द्वारा हम अपना उद्धार करें।
भाषार्थ
(सर्वान् लोकान्) सब लौकिक वासनाओं पर (अभिजित्य) विजय पाकर तूने (सम् आगाः) नए आश्रम में समागम किया है, (यावन्तः कामाः) जितनी भी एषणाएं हैं (तान्) उन्हें (सम् अतीतृपः) तूने पूरी तरह तृप्त कर लिया है। (आयवनं च दर्विः) तेरे कड़ची और चमच और गृह्यसाधन (विगाहेथाम् = विगाहेताम्) जलस्नान करें अर्थात् उन्हें धो और साफ कर (एकस्मिन् पात्रे) किसी एक विश्वासपात्र में (अधि) अधिकृत कर दे, और (एनम्) इस अपने-आप का (उद्धर) उद्धार कर।
टिप्पणी
[पात्रे = यक्षिय आयवन और दर्वि आदि को, स्वामी के मृत्युकाल में, स्वामी के शव के साथ दग्ध करना होता है। इसलिये मृत्युकाल तक उन्हें सुरक्षित रखने का विधान हुआ है । एषणाएं= पुत्रैषणा, लोकैषणा, धनैषणा आदि। नए आश्रम के वासी अभ्यागत के प्रति कहते है]।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
हे राजन् ! (सर्वान् समागाः) सब मनुष्यों को तू प्राप्त हो और अपने उत्तम गुणों से (लोकान्) समस्त मनुष्यों को (अभिजित्य) वश करके (यावन्तः कामाः) उनकी जितनी अभिलाषाएं हैं (तान् सम्अतीतृपः) उन सब को सन्तुष्ट कर, पुनः भात की हांडी में ‘आयवन’, नामक घी आदि मिलाने का चमस और ‘दर्वि’ कडछी घुमाते हैं और फिर एक बड़े थाल में उस भात को निकाल लिया जाता है उसी प्रकार (आयवनम्) शत्रु और राष्ट्र के हानिकारक पुरुषों के नाश करने वाला पोलीस बल और सेनाबल या दण्डबल और (दर्विः) दुष्टों के गढ़ों का विदारण करने वाला सेनाबल ये दोनों (वि गाहेथाम्) सर्वत्र विचरण करें। और हे राजन् ! (एनम्) इस राष्ट्र के भार को (एकस्मिन् पात्रे) एक पालन करने में समर्थ योग्य ‘महामात्र’ या ‘महापात्र’ नामक पुरुष पर (अधि उद्धर) उत्तम रूप से स्थापित कर। राजा अपना सब कार्य महामात्र के ऊपर रखदे।
टिप्पणी
(प्र०) ‘समानानभिचिक्य’ (द्वि०) ‘कामान समितौ पुरस्तात्’ इति पैप्प० सं०। (च०) ‘अभ्युद्धरैनम्’ इति क्वचित्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
Having lived and fulfilled all your desires and ambitions as much and as far as they were, and thus having ruled and conquered all your earthly territories of existence, you have reached this phase of freedom and renunciation. Place all your spoons and ladles, all that was and were yours in life, in one basket, deliver that all to your trusted follower in the line, and raise your self as pure soul, free from all burdens.
Translation
Thou hast come together unto all the worlds, having conquered; however many the desires, thou hast made them wholly satisfied; plunge ye in -- both the stirring-stick and the spoon; take thou him up upon one vessel.
Translation
O men you, conpuerring over all the states of stages of life come (in to Yajna), Whatever desires you cherish fulfill (through Yajna). Let stiring spoon and ladle enter in to it and set it oblation in single vessel.
Translation
O King, meet all people, control them all, and fulfill all their desires. Just as both stirring-spoon and ladle are plunged in a cauldron, and rice is raised to be tested, so duly elevate the soul!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३६−(सर्वान्) (सभागाः) सम्+आङ्+इण् गतौ−लुङ्। संभागतोऽसि (अभिजित्य) (लोकान्) (यावन्तः) (कामाः) इष्टपदार्थाः (सम्) सम्यक् (अतीतृपः) तर्पितवानसि (तान्) कामान् (वि) विविधम् (गाहेथाम्) थस्य तकारश्छान्दसः। गाहेताम्। निमग्ने भवताम् (आयवनम्) आङ्+यु मिश्रणामिश्रणयोः−ल्युट्। विलोडनदण्डः (च) (दर्विः) चमसः (एकस्मिन्) (पात्रे) भाजने (अधि) अधिकारपूर्वकम् (उत् हर) उच्चं प्राप्नुहि (एनम्) आत्मानम् ॥
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