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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 42
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    49

    नि॒धिं नि॑धि॒पा अ॒भ्येनमिच्छा॒दनी॑श्वरा अ॒भितः॑ सन्तु॒ ये॒न्ये। अ॒स्माभि॑र्द॒त्तो निहि॑तः स्व॒र्गस्त्रि॒भिः काण्डै॒स्त्रीन्त्स्व॒र्गान॑रुक्षत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒ऽधिम् । नि॒धि॒ऽपा: । अ॒भि । ए॒न॒म् । इ॒च्छा॒त् । अनी॑श्वरा: । अ॒भित॑: । स॒न्तु॒ । ये । अ॒न्ये । अ॒स्माभि॑: । द॒त्त: । निऽहि॑त: । स्व॒:ऽग: । त्रि॒ऽभि: । काण्डै॑: । त्रीन् । स्व॒:ऽगान् । अ॒रु॒क्ष॒त् ॥३.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निधिं निधिपा अभ्येनमिच्छादनीश्वरा अभितः सन्तु येन्ये। अस्माभिर्दत्तो निहितः स्वर्गस्त्रिभिः काण्डैस्त्रीन्त्स्वर्गानरुक्षत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निऽधिम् । निधिऽपा: । अभि । एनम् । इच्छात् । अनीश्वरा: । अभित: । सन्तु । ये । अन्ये । अस्माभि: । दत्त: । निऽहित: । स्व:ऽग: । त्रिऽभि: । काण्डै: । त्रीन् । स्व:ऽगान् । अरुक्षत् ॥३.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 42
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (निधिपाः) निधियों का रक्षक [पुरुष] (एनम्) इस (निधिम्) निधि [अर्थात् मोक्ष] को (अभि इच्छात्) खोजे, (ये) जो (अन्ये) दूसरे [वेदविरोधी] हैं, वे (अभितः) सब ओर से (अनीश्वराः) बिना ऐश्वर्य (सन्तु) होवें। (अस्माभिः) हम [धर्मात्माओं] से (दत्तः) रक्षित, (निहितः) स्थापित (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला [मनुष्य] (त्रिभिः) तीन [मानसिक, वाचिक और शारीरिक] (काण्डैः) कामनायोग्य कर्मों से (त्रीन्) तीन [आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक] (स्वर्गान्) स्वर्गों [सुख पहुँचानेवाले व्यवहारों] को (अरुक्षत्) ऊँचा चढ़ा है ॥४२॥

    भावार्थ

    मनुष्य ईश्वरनियमों पर चलकर ऐश्वर्य पाते हैं, अधर्मी लोग नहीं पाते, पहिले भी मनुष्यों ने मन, वाणी, और शरीर के उत्तम उपयोगों से आध्यात्मिक आदि सुख पाये हैं ॥४२॥

    टिप्पणी

    ४२−(निधिम्) कोशम्। मोक्षमित्यर्थः (निधिपाः) कोशपालकः (एनम्) (अभि इच्छात्) अन्वेषणेन प्राप्नुयात् (अनीश्वराः) ईश ऐश्वर्ये−वरच्। अनैश्वर्यवन्तः (अभितः) सर्वतः (ये) (अन्ये) वेदविरोधिनः (अस्माभिः) विद्वद्भिः (दत्तः)−देङ् पालने−क्त। दाधा ध्वदाप्। पा० १।१।२०। इति घु संज्ञा। दो दद्घोः। पा० ७।४।४६। दद् इत्यादेशः। रक्षितः (निहितः) स्थापितः (स्वर्गः) सुखप्रापकः पुरुषः (त्रिभिः) मानसिकवाचिकशारीरिकैः (काण्डैः) क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। कमु कान्तौ−ड। यद्वा, कण शब्दे−ड। अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। पा० ६।४।१५। इति दीर्घः। कर्मनीयैः कर्मभिः (त्रीन्) आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकान् (स्वर्गान्) सुखप्रापकान् व्यवहारान् (अरुक्षत्) अध्यतिष्ठत् ॥

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    विषय

    वीर्य-निधि का रक्षण

    पदार्थ

    १. (निधिपाः) = वीर्यरूप निधि की रक्षा करनेवाला (एनं निधिम्) = इस वीर्य-निधि को (अभीच्छात्) = सब प्रकार से प्राप्त करना चाहे। इस वीर्यरूप निधि का वह सब प्रकार से रक्षण करे। (ये अन्ये) = जो इन वीर्य-निधि के रक्षकों से भिन्न व्यक्ति हैं, अर्थात् जो इस निधि के महत्व को न समझते हुए इसका रक्षण नहीं करते वे (अभितः अनीश्वरा: सन्तु) = इहलोक व परलोक दोनों के दृष्टिकोण से ऐश्वर्यरहित हों-न वे अभ्युदय को प्राप्त करें, न नि:श्रेयस को। २. (अस्माभिः) = हमसे तो यह वीर्य-निधि (दत्त:) = [देङ् पालने] रक्षित हुआ है, इसीलिए (स्वर्ग: निहित:) = हमारे लिए स्वर्ग स्थापित हुआ है। मनुष्य को चाहिए कि वह वीर्यरक्षण द्वारा 'ज्ञान, कर्म व उपासना' रूप (त्रिभिः काण्डै:) = तीन काण्डों के द्वारा-जीवन के इन तीन नियमों के द्वारा (त्रीन् स्वर्गान् अरुक्षत्) = तीन स्वर्गों का आरोहण करे । कर्मकाण्ड द्वारा शरीर को सशक्त व स्वस्थ बनाए। उपासना काण्ड द्वारा हृदय को निर्मल बनाए। ज्ञानकाण्ड द्वारा मस्तिष्क को दीप्त रक्खे ।

    भावार्थ

    वीर्यरक्षण के अभाव में न अभ्युदय की प्राप्ति है, न निःश्रेयस का सम्भव। वीर्यरक्षक के लिए ही स्वर्ग है। यह वीर्यरक्षक पुरुष ज्ञान, कर्म व उपासना द्वारा 'धुलोक [मस्तिष्क], पृथिवीलोक [शरीर] व अन्तरिक्षलोक [हृदय] का विजय करता है।

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    भाषार्थ

    (निधिपाः) निधि का रक्षक गृहस्वामी, (एनं निधम्) इस निधि को, (अभीच्छात्) निजाधिकार में चाहे; (ये अन्ये) जो अन्य गृहवासी (अभितः) गृहस्वामी के समीप या चारों ओर रहते हैं वे (अनीश्वराः सन्तु) निधि पर अनधिकारी हों। (अस्माभिः दत्तः) हम द्वारा दी गई (निहितः) निधि भी (स्वर्गः) स्वर्गरूप है, सुखविशेष प्राप्त कराने वाली है। (त्रिभिः) तीन (काण्डैः) कमनीय साधनों द्वारा (त्रीन् स्वर्गान्) तीन स्वर्गों पर (अरुक्षत्) व्यक्ति आरोहण करता है।

    टिप्पणी

    [गृहस्वामी जब तक गृहजीवन में रहे तब तक गृह्यसम्पत्ति पर गृह स्वामी का ही अधिकार होना चाहिये। दान देने से भी जीवन स्वर्गमय बनता है। यथा "दातुं चेच्छिक्षान्त्स स्वर्ग एव" (अथर्व ६।१२२।२)। अर्थात् अन्य बन्धुओं से रहित व्यक्ति, यदि अपनी सम्पत्ति का सर्वस्व दान कर दे तो यह स्वर्ग रूप ही है। व्यक्ति तीन कमनीय साधनों द्वारा तीन स्वर्गों पर आरूढ़ होता है— गृहस्थ द्वारा, वानप्रस्थ द्वारा, संन्यास द्वारा स्वर्ग, अर्थात् विशेष सुखमय जीवन को प्राप्त करता है, या ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास द्वारा। पौराणिक साहित्य में प्रायः एक स्वर्ग का ही वर्णन मिलता है, जिसका कि अधिपति इन्द्र है। काण्डैः= कमनीयैः, काम्यैः]।

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    (निधिपाः) निधि—पृथ्वी के राज्य को पालन करने वाला राजा (एनं) उस साम्राज्य रूप (निधिम्) पृथ्वी के खजाने को (अभि इच्छात्) स्वयं प्राप्त करे। और (ये) जो (अन्ये) दूसरे (अनीश्वराः) ऐश्वर्य से हीन निर्बल पुरुष हैं वे (अभितः) उस राजा के चारों ओर उस के आश्रित होकर (सन्तु) रहें। (अस्माभिः) हम लोग स्वयं (स्वर्गः) इस स्वर्ग को (दत्तः) उस राजा को प्रदान करते और (निहितः) स्वयं बनाते हैं। यह राजा (त्रिभिः काण्डैः) तीन प्रकार की व्यवस्थाओं से (त्रीन् स्वर्गान्) तीनों सुखमय लोकों के (आरुक्षत्) ऊपर चढ़े, उन सब पर वश करे, शासन करे। बालक, युवक और वृद्ध इन तीनों के लिये तीन प्रकार की व्यवस्थाएं हो। अथवा तीन काण्ड तीन वेद हैं। अथवा उत्तम, मध्यम, अधम भेद से तीन अथवा त्रिवर्णों की तीन व्यवस्थाएं। धर्म, अर्थ, काम इनकी साधना की तीन व्यवस्थाएं। इसी प्रकार उनके तीन क्षेत्र तीन स्वर्ग हैं। आध्यात्मिक, गृहस्थ और राष्ट्र ये तीन स्वर्ग हैं। राजा सब का शासन अपने हाथ में रखखे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    Let the head and guradian of the family wish and strive to protect, maintain and promote this homely commonwealth. Others who would not wish and strive thus would deny and deprive themselves all round of this divine familial bliss. This earthly paradise of homely bliss is given by us, divinities of earth and heaven, which man should try to attain through three stages of Brhmacharya education, Grhastha life of yajna, and the stage of retirement and renunciation across three generations of the wedded couple, parents and children for threefold bliss of body, mind and soul for the individual, the family and the society as a whole.

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    Translation

    He shall seek unto it, treasure-keepers unto a treasure; let thsoe who are others be not lords about; given by us, deposited, heaven-going with three divisions it has ascended to three heavens.

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    Translation

    The treasures of treasure desires this great treasure. Those who are deprived of such powers of munificence wander around. The Svarga, state of happiness attainable by our alms giving is safe. Let the treasurer of this treasure rise to this state which consists of physical, spiritual and mental pleasure by three acts-Yajna, munificence and austerity.

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    Translation

    Let the king, the protector of Earth, attain to sovereignty over it. Let other powerless persons remain completely under his sway. We, the learned subjects build up the state and hand over this paradise to the king. May he attain to threefold pleasures through threefold acts.

    Footnote

    The verse preaches the doctrine of democracy. Learned subjects elect their ruler and hand over to him the administration of the state. He: King. Threefold acts: Mental, Vocal, Physical. Three fold pleasures: Spiritual, Elemental, Material.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४२−(निधिम्) कोशम्। मोक्षमित्यर्थः (निधिपाः) कोशपालकः (एनम्) (अभि इच्छात्) अन्वेषणेन प्राप्नुयात् (अनीश्वराः) ईश ऐश्वर्ये−वरच्। अनैश्वर्यवन्तः (अभितः) सर्वतः (ये) (अन्ये) वेदविरोधिनः (अस्माभिः) विद्वद्भिः (दत्तः)−देङ् पालने−क्त। दाधा ध्वदाप्। पा० १।१।२०। इति घु संज्ञा। दो दद्घोः। पा० ७।४।४६। दद् इत्यादेशः। रक्षितः (निहितः) स्थापितः (स्वर्गः) सुखप्रापकः पुरुषः (त्रिभिः) मानसिकवाचिकशारीरिकैः (काण्डैः) क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। कमु कान्तौ−ड। यद्वा, कण शब्दे−ड। अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। पा० ६।४।१५। इति दीर्घः। कर्मनीयैः कर्मभिः (त्रीन्) आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकान् (स्वर्गान्) सुखप्रापकान् व्यवहारान् (अरुक्षत्) अध्यतिष्ठत् ॥

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