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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 45
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    40

    इ॒दं प्राप॑मुत्त॒मं काण्ड॑मस्य॒ यस्मा॑ल्लो॒कात्प॑रमे॒ष्ठी स॒माप॑। आ सि॑ञ्च स॒र्पिर्घृ॒तव॒त्सम॑ङ्ग्ध्ये॒ष भा॒गो अङ्गि॑रसो नो॒ अत्र॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । प्र । आ॒प॒म् । उ॒त्ऽत॒मम् । काण्ड॑म् । अ॒स्य॒ । यस्मा॑त् । लो॒कात् । प॒र॒मे॒ऽस्थी । स॒म्ऽआप॑ । आ । सि॒ञ्च॒ । स॒र्पि: । घृ॒तऽव॑त् । सम् । अ॒ङ्ग्धि॒ । ए॒ष: । भा॒ग: । अङ्गि॑रस: । न॒: । अत्र॑ ॥३.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं प्रापमुत्तमं काण्डमस्य यस्माल्लोकात्परमेष्ठी समाप। आ सिञ्च सर्पिर्घृतवत्समङ्ग्ध्येष भागो अङ्गिरसो नो अत्र ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । प्र । आपम् । उत्ऽतमम् । काण्डम् । अस्य । यस्मात् । लोकात् । परमेऽस्थी । सम्ऽआप । आ । सिञ्च । सर्पि: । घृतऽवत् । सम् । अङ्ग्धि । एष: । भाग: । अङ्गिरस: । न: । अत्र ॥३.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 45
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (इदम्) यह (उत्तमम्) उत्तम (काण्डम्) कामनायोग्य पद (अस्य) उस [समाज] का (प्र आपम्) मैं [ब्रह्मचारी] ने पाया है, (यस्मात्) जिस (लोकात्) समाज से (परमेष्ठी) बड़े ऊँचे पदवाले [ब्रह्मचारी] ने [उत्तम पद को] (समाप) पूरा-पूरा पाया था। [हे आचार्य !] तू (घृतवत्) प्रकाशयुक्त (सर्पिः) ज्ञान को (आ सिञ्च) सब ओर सींच और (सम्) ठीक-ठीक (अङ्ग्धि) प्रकट कर, (अङ्गिरसः) विद्वान् [आचार्य] का (एषः) यह (भागः) सेवनीय व्यवहार (नः) हमारे लिये (इह) यहाँ [संसार में] [होवे] ॥४५॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारिणी और ब्रह्मचारी पूर्व विद्यार्थियों के समान नियमपूर्वक विद्या का अभ्यास करें और आचार्य से विद्या के लिये प्रार्थना किया करें ॥४५॥

    टिप्पणी

    ४५−(इदम्) प्रत्यक्षम् (प्रापम्) प्राप्तवानस्मि (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (काण्डम्) म० ४२। कमनीयं पदम् (अस्य) तस्य। समाजस्य (यस्मात्) (लोकात्) समाजात् (परमेष्ठी) उत्कृष्टे पदे वर्तमानो ब्रह्मचारी (सम्) सम्यक् (आप) प्राप्तवान् (आ) समन्तात् (सिञ्च) (सर्पिः) अर्चिशुचिहुसृपि०। उ० २।१०८। सृप गतौ−इसि। ज्ञानम् (घृतवत्) प्रकाशयुक्तम् (सम्) सम्यक् (अङ्ग्धि) अञ्जू व्यक्तीकरणे। व्यक्तं प्रकटं कुरु (एषः) (भागः) सेवनीयो व्यवहारः (अङ्गिरसः) विदुषः पुरुषस्य। आचार्यस्य (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) संसारे ॥

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    विषय

    घृतवत् सर्पिः

    पदार्थ

    १. हृदयान्तरिक्ष से सम्बद्ध उपासनाकाण्ड है, शरीररूप पृथिवी से सम्बद्ध कर्मकाण्ड तथा मस्तिष्करूप द्युलोक के साथ ज्ञानकाण्ड का सम्बन्ध है। मैं (अस्य) = इस प्रभु के (इदं उत्तमं काण्डम्) = इस सर्वोत्तम ज्ञानकाण्ड को (प्रापम्) = प्राप्त हुआ है, अर्थात् प्रभु से वेद द्वारा दिये गये ज्ञान को प्राप्त करता हूँ। (यस्मात् लोकात्) = जिस ज्ञान के प्रकाश से (परमेष्ठी समाप) = प्रभु प्राप्त होते हैं। २. हे जीव! तू (घृतवत्) = ज्ञानदीप्ति से युक्त (सर्पि:) = [सृप गतौ] क्रियाशीलता को (आसिञ्च) = अपने जीवन में सींच, अर्थात् सदा ज्ञानपूर्वक कर्मों को करनेवाला बन और इस प्रकार (समङ्ग्धि) = अपने जीवन को सद्गुणों से अलंकृत [Decorate] कर। (अत्र) = इस जीवन में (अङ्गिरस:) = अङ्गिरस् पुरुष का (एषः भागः नः) = यह भजनीय व्यवहार हमारा हो। हम भी अङ्गिरस् बनें और सदा ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए जीवन को सद्गुणों से मण्डित करें।

    भावार्थ

    हम ज्ञान को प्राप्त करें। ज्ञान के द्वारा प्रभु को प्राप्त करें। हमारी सब क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक हों और इस प्रकार हमारे जीवन सद्गुणों से अलंकृत हो पाएँ।

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    भाषार्थ

    (अस्य) इस जीवन के (इमम्) इस (उत्तमं काण्डम्) उत्तम काम्प लोक को (प्रापम्) मैंने प्राप्त किया है, अर्थात् उस लोक को (यस्मात् लोकात्) जिस लोक से कि (परमेष्ठी१) सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त परमेश्वर (समाप) सम्यक्तया प्राप्त होता है। (घृतवत्) घृत वाले मधु को, (सर्पिः) तथा पिघले घी को (आसिञ्च) तू उदर में सींच (समङ्ग्धि) और इस प्रकार शरीर को कान्ति से युक्त कर, (अङ्गिरसः) हे ज्ञानाग्नि विद्या के जानने वालो ! (अत्र) इस आश्रम में (नः) हमारा (एष भागः) यह भाग है।

    टिप्पणी

    [काण्डम् = कमनीय, काम्य। परमेष्ठी = परमे स्थाने तिष्ठति (अथर्व० १०।२।१७)। सर्पिः = पिघला घी। आसिञ्च= आश्रम का आचार्य, नव प्रविष्ट के प्रति कहता है कि इस आश्रम में हमारे लिये घृत उपकारी है, पिघले घृत का पान, तथा घृत मिश्रित मधु का सेवन]। [१. परमेषु प्रकृत्यपेक्षयोत्कृष्टेषु जीवात्मसु तिष्ठतीति वा।]

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    मैं राजा (इदम्) इस (उत्तमम्) उत्तम (काण्डम्) काण्ड = आश्रय भूत शाखा या स्तम्भ वेद को (प्रापम्) प्राप्त करता हूं। (यस्मात्) जिस (लोकात्) लोक = आलोक, प्रकाश से (परमेष्ठी) परम स्थान पर स्थित स्वयं प्रजापति परमात्मा (सम् आप) समस्त संसार को अपने वश करता है। हे पुरुष ! तू (घृतवत् सर्पिः) घृत से युक्त ‘सर्पि’ = मधु को (सम् अङ्-धि) मिश्रित कर (अत्र) यहां इस स्थान और अवसर पर (नः) हमारा (एषः) यह (आङ्गिरसः भागः) आङ्गिरस, विद्वान् ज्ञानी पुरुष का (एषः भागः) यह भाग है।

    टिप्पणी

    ‘इदं काण्डमुत्तमं प्रापमस्य’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    O wedded couples, men and women of the human nation, your hands are clean, you do not violate the vision and will of the Brahmana, man of knowledge and foresight, your actions are positive, I exhort you to act, cooperate, create and enjoy this happy paradise on earth free from ogres and blood suckers.

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    Translation

    I have obtained this highest division of it, from which world the most exalted one obtained completely; pour thou on the butter; anoint with ghee; this is the portion of our Angiras here.

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    Translation

    I, the devotee have obtained the good portion of that knowledge through which the sustain or of the universe has in to his control. Oman put here the honey-mixed with ghee and mix ghee further therein. This is the portion of us, the man of sciences.

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    Translation

    I have acquired the lofty Vedic knowledge, the light through, which God, from His high pedestal, rules the universe. O Acharya, scatter beautiful knowledge all round, manifest it in fulness. May this useful act of the Acharya, be meant for us in this world.

    Footnote

    Acharya: Guru, teacher, preceptor. I: A Brahmchari. Us: The Brahmcharis.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४५−(इदम्) प्रत्यक्षम् (प्रापम्) प्राप्तवानस्मि (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (काण्डम्) म० ४२। कमनीयं पदम् (अस्य) तस्य। समाजस्य (यस्मात्) (लोकात्) समाजात् (परमेष्ठी) उत्कृष्टे पदे वर्तमानो ब्रह्मचारी (सम्) सम्यक् (आप) प्राप्तवान् (आ) समन्तात् (सिञ्च) (सर्पिः) अर्चिशुचिहुसृपि०। उ० २।१०८। सृप गतौ−इसि। ज्ञानम् (घृतवत्) प्रकाशयुक्तम् (सम्) सम्यक् (अङ्ग्धि) अञ्जू व्यक्तीकरणे। व्यक्तं प्रकटं कुरु (एषः) (भागः) सेवनीयो व्यवहारः (अङ्गिरसः) विदुषः पुरुषस्य। आचार्यस्य (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) संसारे ॥

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