अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 53
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
42
व॒र्षं व॑नु॒ष्वापि॑ गच्छ दे॒वांस्त्व॒चो धू॒मं पर्युत्पा॑तयासि। वि॒श्वव्य॑चा घृ॒तपृ॑ष्ठो भवि॒ष्यन्त्सयो॑निर्लो॒कमुप॑ याह्ये॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठव॒र्षम् । व॒नु॒ष्व॒ । अपि॑ । ग॒च्छ॒ । दे॒वान् । त्व॒च: । धू॒मम् । परि॑ । उत् । पा॒त॒या॒सि॒ । वि॒श्वऽव्य॑चा: । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । भ॒वि॒ष्यन् । सऽयो॑नि: । लो॒कम् । उप॑ । या॒हि॒ । ए॒तम् ॥३.५३॥
स्वर रहित मन्त्र
वर्षं वनुष्वापि गच्छ देवांस्त्वचो धूमं पर्युत्पातयासि। विश्वव्यचा घृतपृष्ठो भविष्यन्त्सयोनिर्लोकमुप याह्येतम् ॥
स्वर रहित पद पाठवर्षम् । वनुष्व । अपि । गच्छ । देवान् । त्वच: । धूमम् । परि । उत् । पातयासि । विश्वऽव्यचा: । घृतऽपृष्ठ: । भविष्यन् । सऽयोनि: । लोकम् । उप । याहि । एतम् ॥३.५३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे पुरुष !] तू (वर्षम्) वरणीय [श्रेष्ठ] कर्म का (वनुष्व) सेवन कर, (देवान्) कामनायोग्य गुणों को (अपि) अवश्य (गच्छ) प्राप्त हो, (त्वचः) अपनी खाल [देह] से (धूमम्) धुएँ [मैल] को (परि) सब ओर (उत् पातयासि) उड़ा दे। (विश्वव्यचाः) सब व्यवहारों में फैला हुआ, (घृतपृष्ठः) प्रकाश से सींचता हुआ और (सयोनिः) समान घरवाला (भविष्यन्) भविष्यत् में होता हुआ तू (एतम्) इस (लोकम्) लोक [व्यवहार मण्डल] में (उप याहि) पहुँच ॥५३॥
भावार्थ
सब स्त्री-पुरुष शुभ कर्म और शुभ गुणों को प्राप्त होकर अज्ञान को दूर फेंकें, जैसे प्रकाश के बल से धुआँ इतर-वितर हो जाता है। और वे ज्ञानी पुरुष संसार के सब काम साधने में साधु होवें ॥५३॥ इस मन्त्र का दूसरा भाग ऊपर मन्त्र १९ में आ चुका है ॥
टिप्पणी
५३−(वर्षम्) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। वृञ् वरणे−स प्रत्ययः। वरणीयं स्वीकरणीयं कर्म (वनुष्व) सेवस्व (अपि) अवश्यम् (गच्छ) प्राप्नुहि (देवान्) कामनीयान् गुणान् (त्वचः) चर्मणः। देहात् (परि) सर्वतः (उत्) ऊर्ध्वम् (पातयासि) लेट्। गमय। अन्यत् पूर्ववत्−म० १९ ॥
विषय
वर्ष वनुष्व----अपि गच्छ देवान्
पदार्थ
१. (वर्षम्) = [वृषु सेचने] शक्ति के शरीर में सेचन को (वनुष्व) = तू सेवित कर । शरीर में उत्पन्न शक्तिको शरीर में ही सिक्त करने के लिए यत्नशील हो और इसप्रकार (देवान् अपिगच्छ) = दिव्यगुणों की ओर गतिवाला हो। (त्वचः) = अपनी त्वचा से (धूमम्) = मलिनतारूप धूम को (पर्युत्पातयासि) = दूर फेंकनेवाला हो। शरीर में शक्ति के रक्षण से जहाँ मन दिव्यगुण सम्पन्न-बनेगा, वहाँ शरीर की त्वचा भी रोगों की निस्तेजस्विता से शून्य होकर चमक उठेगी २. (विश्वव्यचा:) = सब शक्तियों के विस्तारवाला, (घृतपृष्ठ:) = ज्ञानदीप्ति को अपने में सींचनेवाला (भविष्यन्) = होना चाहता हुआ तू (सयोनि:) = प्रभु के साथ एक घर में निवासवाला, अर्थात् हृदय में प्रभु के साथ स्थित हुआ-हुआ (एतं लोकम् उपयाहि) = इस लोक को प्राप्त हो-प्रभुस्मरणपूर्वक इस लोक में विचरनेवाला बन । यह प्रभुस्मरण तेरी सब क्रियाओं को पवित्र बनाएगा।
भावार्थ
शरीर में ही वीर्यशक्ति के सेचन से मन में दिव्यगुणों की स्थिति होगी तथा शरीर में नीरोगता के कारण त्वचा चमक उठेगी। साथ ही प्रभुस्मरणपूर्वक सब क्रियाओं को करने पर मनुष्य अपनी शक्तियों का विस्तार करेगा और ज्ञानदीति से अपने को दीस कर पाएगा।
भाषार्थ
(वर्षम्) परमेश्वरीय कृपा की वर्षा की (वनुष्व) याचना कर, (देवान्) दिव्य लोकों को (अपि गच्छ) जा, (त्वचः) शरीर से (धूमम्) अन्त्येष्टि संस्कारोत्थित धूएं को (उत्पातयासि) तू ऊपर अन्तरिक्ष की ओर उड़ा। (विश्वव्यचाः) विश्व में फैलने वाला, (घृतपृष्ठः) घृत से स्पृष्ट (भविष्यन्) होने वाला, तथा (सयोनिः) सब के लिये जो सामान्य घर है उसे प्राप्त हुआ, (एतम् लोकम्) इस अन्तरिक्ष लोक को (उप याहि) तू जा।
टिप्पणी
[मृत्यु के समय का, तथा अन्त्येष्टि संस्कार का वर्णन है। विश्वव्यचाः = अग्नि द्वारा शरीर सूक्ष्म होकर विश्व में फैल जाता है, और घृतपृष्ठः = घृतहुतियों द्वारा अन्त्येष्टि संस्कार निष्पन्न किया जाता है। विश्वव्यचाः का यह भी अभिप्राय है कि मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा विश्व में विचरता है। विश्वव्यचाः= विश्व + वि + अञ्च् (गतौ)। त्वचः = शरीर मानो आत्मा की त्वचा है, त्वच् संवरणे। सयोनिः = स + योनिः (गृहनाम, निघं० ३।४)। मृत्यु के पश्चात् जीवात्माओं का घर अन्तरिक्ष होता है। पृष्ठ =स्पृशतेः (निरु० ४।१।३)]
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
हे राजन् वस्त्र से ही तू (वर्षं वनुष्व) वर्षा पर विजय प्राप्त कर अर्थात् छत्र बनाले। (अपि) और (देवान् गच्छ) देवों, विद्वानों और राजाओं के पास सुन्दर वस्त्र पहन कर जा। (धूमम्) धूम जिस प्रकार अग्नि के ऊपर उठा करता है इसी प्रकार (त्वचः) वस्त्रों को झण्डे के रूप में (परि उत् पातयासि) ऊपर उड़ा फरफरा। तू (विश्वव्यचाः) सर्वत्र प्रसिद्ध होकर (घृतपृष्ठाः) तेजस्वी (भविष्यन्) होने की इच्छा करता हुआ (सयोनिः) अपने उद्भवस्थान इस राष्ट्र के प्रजाजनो सहित (एतम्) इस उत्तम (लोकम्) लोक राष्ट्र को (उपयाहि) प्राप्त कर।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘देवांस्ततो’, (तृ० च०) ‘विश्वव्यचा विश्वकर्मा स्वर्गः सयोनिं लोकमुपयाह्येकम्’। इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
Pray for the shower of divine mercy and grace, go up to the divinities, shake off the dust and smoke from your body and mind. Being liberal and universally free, anointed with ghrta, rise to this higher region of the firmament and there join with the people of your nature and character in the spirit.
Translation
Win thou rain; go unto the gods; thou shalt make smoke fly up out of the skin; about to become all expanded, gheebacked, go thou, of like origin, unto that world.
Translation
O Man, take full advantage of rain, attend the enlightened persons or contact through Yajna the forces of nature and let the smoke of Yajna spread out on your skins (for the whole someness of body and mind), you spreading your name and fome broadly, carrying ghee on your back (for Yajna), i.e coming akin with others deal in this world (with each other).
Translation
O King, perform noble deeds, acquire laudable qualities, remove impurity from all sides of the body. Acquiring universal renown, longing for prosperity, assume the reins of this excellent state along with thy subjects.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५३−(वर्षम्) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। वृञ् वरणे−स प्रत्ययः। वरणीयं स्वीकरणीयं कर्म (वनुष्व) सेवस्व (अपि) अवश्यम् (गच्छ) प्राप्नुहि (देवान्) कामनीयान् गुणान् (त्वचः) चर्मणः। देहात् (परि) सर्वतः (उत्) ऊर्ध्वम् (पातयासि) लेट्। गमय। अन्यत् पूर्ववत्−म० १९ ॥
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