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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 50
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    45

    सम॒ग्नयः॑ विदुर॒न्यो अ॒न्यं य ओष॑धीः॒ सच॑ते॒ यश्च॒ सिन्धू॑न्। याव॑न्तो दे॒वा दि॒व्या॒तप॑न्ति॒ हिर॑ण्यं॒ ज्योतिः॒ पच॑तो बभूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । अ॒ग्नय॑:। वि॒दु॒: । अ॒न्य: । अ॒न्यम् । य: । ओष॑धी:। सच॑ते । य: । च॒ । सिन्धू॑न् । याव॑न्त:। दे॒वा: । दि॒वि । आ॒ऽतप॑न्ति । हिर॑ण्यम् । ज्योति॑: ।‍ पच॑त: । ब॒भू॒व॒ ॥३.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समग्नयः विदुरन्यो अन्यं य ओषधीः सचते यश्च सिन्धून्। यावन्तो देवा दिव्यातपन्ति हिरण्यं ज्योतिः पचतो बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । अग्नय:। विदु: । अन्य: । अन्यम् । य: । ओषधी:। सचते । य: । च । सिन्धून् । यावन्त:। देवा: । दिवि । आऽतपन्ति । हिरण्यम् । ज्योति: ।‍ पचत: । बभूव ॥३.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 50
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्नयः) सब आगे [के ताप] (अन्यो अन्यम्) परस्परं (सं विदुः) मिलते हैं, (यः) जो [ताप] (ओषधीः) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] को (च) और (यः) जो (सिन्धून्) [पृथिवी और अन्तरिक्ष के] समुद्रों को (सचते) सेवता है। (यावन्तः) जितने (देवाः) चमकते हुए लोक (दिवि) आकाश में (आतपन्ति) सब ओर तपते हैं, [वैसे ही] (पचतः) सब के परिपक्व करनेवाले वा विस्तारक [परमेश्वर] के (हिरण्यम्) कमनीय प्रकाश ने (ज्योतिः) [प्रत्येक] ज्योति में (बभूव) मेल किया है ॥५०॥

    भावार्थ

    जैसे भौतिक अग्नि, बिजुली आदि के रूप से सब पदार्थों और सब लोकों को सहारता और चमकाता है, वैसे ही जगत्स्रष्टा परमात्मा प्रत्येक अग्नि आदि को सहारता और चमकाता है ॥५०॥

    टिप्पणी

    ५०−(अग्नयः) अग्नितापाः (संविदुः) सं गच्छन्ते (अन्यो अन्यम्) परस्परम् (यः) अग्निः (ओषधीः) अन्नसोमलतादीन् (सचते) सेवते (यः) (च) (सिन्धून्) पृथिव्यन्तरिक्षस्थान् समुद्रान् (यावन्तः) (देवाः) प्रकाशमाना लोकाः (दिवि) आकाशे (आतपन्ति) (हिरण्यम्) अ० १।९।२। हर्यतेः कन्यन् हिर च। उ० ५।४४। हर्य गतिकान्त्योः−कन्यन्, हिरादेशः। कमनीयः प्रकाशः (ज्योतिः) तेजः (पचतः) पच पाके व्यक्तीकरणे च−शतृ। पक्वं दृढं कुर्वतो व्यक्तीकुर्वतो वा परमेश्वरस्य (बभूव) भू मिश्रीकरणे−लिट्। मिश्रीकृतवान् ॥

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    विषय

    हिरण्यं ज्योतिः

    पदार्थ

    १. (अग्नयः) = प्रगतिशील पुरुष (अन्यो अन्यम् संविदुः) = परस्पर एक-दूसरे को सम्यक् जानते हैं। वे परस्पर बड़े उत्तम व्यवहारवाले होते हैं। अग्नि व प्रगतिशील पुरुष वह है (यः ओषधी: सचते) = जोकि वानस्पतिक भोजनों को करता है, (च य:) = और जो (सिन्धून्) = [स्यन्दन्ते] प्रवाहित होनेवाले जलों को पीता है। 'सादा खाना, पानी-पीना और उच्च विचारवाला बनना' यही अग्नि' का लक्षण है। २. (यावन्त:) = जितने भी (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष हैं, वे (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (आतपन्ति) = अपने को ज्ञानदीप्त बनाते हैं। यह ज्ञानदीप्ति ही उन्हें पवित्र जीवनवाला बनाकर देव बना देती है। (पचत:) = जो भी अपने जीवन को तपस्या की अग्नि में परिपक्व करता है, उस व्यक्ति को (हिरण्यं ज्योतिः) = हितरमणीय ज्ञानज्योति (बभूव) = प्राप्त होती है [भू प्राप्तौ]।

    भावार्थ

    प्रगतिशील पुरुष परस्पर प्रीतिपूर्वक वर्तते हैं, वे द्वेष नहीं करते। ये अन्न व जल का सेवन करते हैं और ज्ञान के द्वारा जीवन को देववृत्ति का बनाते हैं। इन तपस्वियों को हितरमणीय ज्योति प्रास होती है।

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    भाषार्थ

    (अग्नयः) अग्नियां (अन्यो अन्यम्) परस्पर में (संविदुः) संवेदन अर्थात् मानो ऐकमत्य को प्राप्त हैं, (यः) जो अग्नि कि (ओषधीः सचते) ओषधियों के साथ सम्बद्ध है, (यः च) और जो (सिन्धून्) स्यन्दनशील नदियों, या अन्तरिक्ष में स्यन्दन करने वाले मेघों के साथ सम्बद्ध है वे। तथा (यावन्तः) जितने (देवाः) द्योतमान नक्षत्र-तारागण (दिवि) द्युलोक में (आ तपन्ति) द्युलोक के सब ओर तप रहे हैं, उन सब में से (हिरण्यं ज्योतिः) हिरण्मय ज्योति (पचतः) अन्न पका कर निरीह-सेवा करने वाले को (बभूव) प्राप्त होती है।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह कि उक्त ज्योतियां जड़ होती हुई भी परस्पर में ऐकमत्य (Harmony) को प्राप्त हो कर हमारी सेवाएं कर रही हैं, तो इस ज्ञानवान् ज्योतियो को भी परस्पर सहानुभूतिपूर्वक एक-दूसरे की सेवा करनी चाहिये। ओषधियों की अग्नि, ओषधि के जलाने से प्रकट होती है। सिन्धुओं की अग्नि है विद्युत्। हिरण्यं ज्योति है "हिरण्मय सूर्य में विद्यमान ज्योति, "यथा "हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म" (यजु० ४०।१७)। इस ब्राह्मी ज्योति को "आदित्यवर्णम्" भी कहा है (यजु० ३१।१८)]।

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    (अग्नयः) श्रग्नि के समान ज्ञान से प्रकाशमान विद्वान् पुरुष (अन्यः अन्यम्) एक दूसरे को (संविदुः) भली प्रकार जानें, उनमें से (यः) जो कोई (ओषधीः सचते) ओषधियों को एकत्र करता अर्थात् वैद्य का कार्य करता है और (यः च) जो कोई (सिन्धून्) सिन्धुओं, नदियों, समुद्रों को (सचते) प्राप्त करता है, उन पर व्यापार आदि करता या उनके तटपर तपस्या करता है वे भी एक दूसरे को भली प्रकार जानें (यावन्तः) जितने भी (देवाः) प्रकाशमान सूर्य (दिवि) आकाश में (आतपन्ति) प्रकाशित होते हैं उनके समान ही जो विद्वान् ज्ञान में प्रकाशित होते हैं उनको और (पचतः) अपने वीर्य, सामर्थ्य को परिपक्व करने हारे तपस्वी ब्रह्मचारी का (हिरण्यं ज्योतिः) सुवर्ण के समान उज्जवल तेज (बभूव) हो जाता है। इसी प्रकार (अग्नयः) राजा लोग भी परस्पर एक दूसरे को जाना करें उनमें एक (ओषधीः) प्रजाओं को संगठित करते और दूसरे (सिन्धून्) वेगवान् सैनिकों को संग्रह करते हैं। सूर्यों के समान जो राष्ट्र विद्वान् सामर्थ्य को परिपक्व करते हैं उसके पास सुवर्ण आदि वैभव बहुत हो जाता है।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘सिन्धुम्’, (च०) ‘दधतु [तो] बभूव’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    All the fires of nature’s yajna are akin and join together in action, those that ripen herbs and trees and those that make the clouds to shower and rivers to flow. As long as divine lights shining in heavens of space mature the divinities of nature and humanity, so long the golden light of generosity will continue to inspire those that work with love and provide food for the needy.

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    Translation

    The fires are in concord, one with another — he that fastens on the herbs, and he that (fastens on) the rivers; as many gods as send heat in the sky — gold hath become the light of him that cooks.

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    Translation

    The Agnis: heats, of which one works in herbs and plants, and one works in rivers and oceans, come in unison of each other. All the forces which shine in the heaven send shining light to him who cook oblation.

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    Translation

    Learned persons, glowing with knowledge like fire know each other. A physician who gathers medicinal plants, and a saint who contemplates on the banks of rivers also know each other. The lustre of Brahmcharis who preserve their semen through penance becomes glittering like gold, like all the luminous bodies that shine and glow in heaven.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५०−(अग्नयः) अग्नितापाः (संविदुः) सं गच्छन्ते (अन्यो अन्यम्) परस्परम् (यः) अग्निः (ओषधीः) अन्नसोमलतादीन् (सचते) सेवते (यः) (च) (सिन्धून्) पृथिव्यन्तरिक्षस्थान् समुद्रान् (यावन्तः) (देवाः) प्रकाशमाना लोकाः (दिवि) आकाशे (आतपन्ति) (हिरण्यम्) अ० १।९।२। हर्यतेः कन्यन् हिर च। उ० ५।४४। हर्य गतिकान्त्योः−कन्यन्, हिरादेशः। कमनीयः प्रकाशः (ज्योतिः) तेजः (पचतः) पच पाके व्यक्तीकरणे च−शतृ। पक्वं दृढं कुर्वतो व्यक्तीकुर्वतो वा परमेश्वरस्य (बभूव) भू मिश्रीकरणे−लिट्। मिश्रीकृतवान् ॥

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