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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 33
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
    31

    वन॑स्पते स्ती॒र्णमा सी॑द ब॒र्हिर॑ग्निष्टो॒मैः संमि॑तो दे॒वता॑भिः। त्वष्ट्रे॑व रू॒पं सुकृ॑तं॒ स्वधि॑त्यै॒ना ए॒हाः परि॒ पात्रे॑ ददृश्राम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन॑स्पते । स्ती॒र्णम् । आ । सी॒द॒ । ब॒र्हि: । अ॒ग्नि॒ऽस्तो॒मै: । सम्ऽमि॑त: । दे॒वता॑भि: । त्वष्ट्रा॑ऽइव । रू॒पम् । सुऽकृ॑तम् । स्वऽधि॑त्या । ए॒ना । ए॒हा: । परि॑ । पात्रे॑ । द॒ह॒श्रा॒म् ॥३.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनस्पते स्तीर्णमा सीद बर्हिरग्निष्टोमैः संमितो देवताभिः। त्वष्ट्रेव रूपं सुकृतं स्वधित्यैना एहाः परि पात्रे ददृश्राम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनस्पते । स्तीर्णम् । आ । सीद । बर्हि: । अग्निऽस्तोमै: । सम्ऽमित: । देवताभि: । त्वष्ट्राऽइव । रूपम् । सुऽकृतम् । स्वऽधित्या । एना । एहा: । परि । पात्रे । दहश्राम् ॥३.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 33
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (वनस्पते) हे सेवनीय शास्त्र के रक्षक विद्वान् ! तू (स्तीर्णम्) फैले हुए (बर्हिः) आसन पर (आ सीद) बैठ जा, तू (अग्निष्टोमैः) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर की स्तुतियों से और (देवताभिः) व्यवहारकुशल पुरुषों से (संमितः) सन्मान किया गया है। (एना) इस [पुरुष] करके (एहाः) चेष्टाएँ (पात्रे) पात्र में [चित्त में] (परि) सब ओर से (ददृश्राम्) देखी जावें, (त्वष्ट्रा इव) जैसे शिल्पी करके (स्वधित्या) वसूले आदि से (सुकृतम्) सुन्दर बनाया गया (रूपम्) वस्तु [देखा जाता है] ॥३३॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य ईश्वर के यथार्थ ज्ञान से और विद्वानों के सत्सङ्ग से संसार में मान्य और स्वस्थ होकर बैठता है, वह चित्त की वृत्तियों को ऐसा स्पष्ट देखता है, जैसे शिल्पी अपने बनाये पदार्थ को निरखता है ॥३३॥

    टिप्पणी

    ३३−(वनस्पते) म० १५। हे सेवनीयस्य शास्त्रस्य रक्षक (स्तीर्णम्) विस्तीर्णम् (आसीद) उपविश (बर्हिः) आसनम् (अग्निष्टोमैः) ज्ञानस्वरूपस्य परमेश्वरस्य स्तुतिभिः (संमितः) सन्मानितः (देवताभिः) व्यवहारकुशलैः (त्वष्ट्रा) शिल्पिना (इव) यथा (रूपम्) द्रव्यम् (सुकृतम्) सुनिर्मितम् (स्वधित्या) कुठारविशेषेण (एना) एनेन पुरुषेण (एहाः) आङ्+ईह चेष्टायाम्−अङ्, टाप्। सम्यक् चेष्टाः (परि) सर्वतः (पात्रे) भाजने। चित्तं (ददृश्राम्) दृशिर् दर्शने−कर्मणि लोट्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७६। शपः श्लुः, द्वित्वम्। झस्य अत्, तलोपे पररूपे च कृते, एत्वे। आमेतः। पा० ३।४।९०। आम्। बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। रुट्। दृश्यन्ताम् ॥

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    विषय

    अग्निष्टोमैः-देवताभिः

    पदार्थ

    १. हे (वनस्पते) = ज्ञानरश्मियों के स्वामिन् ! व [Worshipping-पूजा की वृत्तिवाले] उपासक! (स्तीर्णम् बहि:) = इस बिछाये हुए कुशासन पर (आसीद) = बैठ । यहाँ बैठकर (अग्निष्टोमैः) = प्रभुस्तवनौं से तथा प्रभुस्तवन द्वारा (देवताभि:) = दिव्यगुणों से (संमित:) = [Furnished with] संमित हो अलंकृत हो। हम ज्ञानप्रधान जीवनवाले बनें। अपने प्रत्येक दिन को हम प्रभुपूजन द्वारा दिव्यगुण धारण के प्रयत्न में व्यतीत करें। २. (इव) = जिस प्रकार (त्वष्ट्रा) = एक शिल्पी द्वारा (स्वधित्या) = परशु से (रूपं सुकृतम्) = रूप सुन्दर बनाया जाता है, अर्थात् जैसे वह परशु से लकड़ी को छील-छालकर मेज़ आदि का सुन्दर रूप प्रदान करता है, इसी प्रकार (एना) = इससे (एहा:) = नानाविध चेष्टाएँ [आ+ईह] (पात्रे परिदभ्राम) = रक्षक प्रभु के आश्रय में देखी जाएँ। यह उपसाक भी प्रभुस्मरणपूर्वक उत्तम क्रियाओं द्वारा जीवन को उत्तम रूप प्राप्त कराए।

    भावार्थ

    हम ज्ञानप्रधान जीवनवाले बनें। प्रभुपूजन द्वारा दिव्यगुण धारण का प्रयत्न करें। जैसे शिल्पी परशु द्वारा काष्ठ को कुरसी, मेज़ आदि का सुन्दर रूप प्राप्त कराता है, इसी प्रकार उपासक द्वारा प्रभुस्मरणपूर्वक क्रियाओं से जीवन को सुन्दर रूप दिया जाए।

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    भाषार्थ

    (वनस्पते) हे गृह के स्वामिन् ! (स्तीर्ण बर्हिः) विछाए कुशासन पर (आ सीद) आ विराजिये, (अग्निष्टोमैः) अग्निष्टोम आदि यज्ञों, तथा तत्सम्बन्धी साम गानों के कारण (देवताभिः) इन देवियों और देवताओं द्वारा (संमितः) आप संम्यक्-ज्ञात अर्थात् प्रसिद्ध हैं। (त्वष्ट्रा इव) शिल्पी द्वारा जैसे (स्वधित्या) शस्त्र की सहायता से (रूपं सुकृतम्) वस्तु को सुन्दर रूप किया जाता है, इसी प्रकार (एहाः) भोजनेच्छुक (एनाः) इन देवी-देवताओं को सुन्दर रूप में, (पात्रे) भोजन-पात्र के (परि) चारों ओर बैठे (ददृश्राम्) मैं देखूं।

    टिप्पणी

    [वनस्पतिः = वन (A place of abode, residence, house, आप्टे) +पतिः। भोजन के समय वस्त्र स्वच्छ और सुन्दर होने चाहियें। अभ्यागतों के सत्कारार्थ प्रथम यज्ञ तथा गान भी होना चाहिये। गान वैदिक ढंग का सामगान हो। मन्त्र के पूर्वार्द्ध में गृह स्वामी को देवी-देवताओं के मध्य सत्कार पूर्वक बैठाने का वर्णन हुआ है, और उत्तरार्ध में उस ने अभ्यागतों के दर्शन की अभिलाषा प्रकट की है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    O Vanaspati, host and master of this auspicious feast, be seated on this grassy sheet spread for you, along with the sages and the ladies and with the plans for Agnishtoma yajnas. And the beauty of this entire programme created as if by Tvashta, divine architect, is seen here in all details of the vedi and utensils for yajna finished with his art.

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    Translation

    O forest tree, sit on the strewn barhis, being commensurate with the Agni-praises, with the deities; like a form well made by an artisan with a knife, so let the eager ones be seen round about in the vessel.

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    Translation

    The seat is stretched (for priest) let the fire find place (in vedi). Let it be commensurate with the Agnistomas and the forces concerned with them as Devas. God has made the form of this fire nice with His power. Let these utensils of Yajna be in their respective pots.

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    Translation

    O King, thou keepest all under thy shelter like a big tree. Control thy subjects. Thou art extolled by learned persons and Yedic verses. Just as an expert carpenter with his hatchet makes a piece of wood beautiful and excellent to look at, so does God, with His divine power, lend beauty, brilliance and dignity to thee. Other minor rulers, working in collaboration with thee, and remaining under thy protection, remain present round thee!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३३−(वनस्पते) म० १५। हे सेवनीयस्य शास्त्रस्य रक्षक (स्तीर्णम्) विस्तीर्णम् (आसीद) उपविश (बर्हिः) आसनम् (अग्निष्टोमैः) ज्ञानस्वरूपस्य परमेश्वरस्य स्तुतिभिः (संमितः) सन्मानितः (देवताभिः) व्यवहारकुशलैः (त्वष्ट्रा) शिल्पिना (इव) यथा (रूपम्) द्रव्यम् (सुकृतम्) सुनिर्मितम् (स्वधित्या) कुठारविशेषेण (एना) एनेन पुरुषेण (एहाः) आङ्+ईह चेष्टायाम्−अङ्, टाप्। सम्यक् चेष्टाः (परि) सर्वतः (पात्रे) भाजने। चित्तं (ददृश्राम्) दृशिर् दर्शने−कर्मणि लोट्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७६। शपः श्लुः, द्वित्वम्। झस्य अत्, तलोपे पररूपे च कृते, एत्वे। आमेतः। पा० ३।४।९०। आम्। बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। रुट्। दृश्यन्ताम् ॥

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