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अथर्ववेद > काण्ड 12 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - चतुष्पदा स्वराडुष्णिक् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    स्व॒धया॒ परि॑हिता श्र॒द्धया॒ पर्यू॑ढा दी॒क्षया॑ गु॒प्ता य॒ज्ञे प्रति॑ष्ठिता लो॒को नि॒धन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒धया॑ । परि॑ऽहिता । श्र॒ध्दया॑ । परि॑ऽऊढा। दी॒क्षया॑ । गु॒प्ता । य॒ज्ञे । प्रति॑ऽस्थिता । लो॒क: । नि॒ऽधन॑म् ॥५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वधया परिहिता श्रद्धया पर्यूढा दीक्षया गुप्ता यज्ञे प्रतिष्ठिता लोको निधनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वधया । परिऽहिता । श्रध्दया । परिऽऊढा। दीक्षया । गुप्ता । यज्ञे । प्रतिऽस्थिता । लोक: । निऽधनम् ॥५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 3

    शब्दार्थ -
    (लोक:) संसार से प्रसन्तापूर्वक, हँसते हुए (निधनम्) प्रस्थान करने के लिए (स्वधया परिहिता) अन्न-जल और स्वसामर्थ्य से दूसरों का हित सम्पादन करो (श्रद्धया परि ऊढा) श्रद्धा से आच्छादित रहो (दीक्षया गुप्ता) दृढ़ संकल्प से सुरक्षित रहो (यज्ञे प्रतिष्ठिता) यज्ञ में प्रतिष्ठा प्राप्त करो ।

    भावार्थ - संसार एक क्रीड़ास्थल है । प्रत्येक व्यक्ति को अपना पार्ट पूर्ण कर यहाँ से प्रस्थान करना है । सभी को जाना है। हम यहाँ से प्रस्थान करें परन्तु हँसते हुए प्रस्थान करें। इसके लिए वेद माता हमें चार साधनों का निर्देश कर रही है - १. अन्न और जल के द्वारा तथा अपने जीवन को होम करके भी दूसरों का हित सम्पादन करो। अपने धन और धान्य से, अपने सभी साधनों से दीन, दुःखी और दलितों की खूब सेवा करो । २. श्रद्धा से आच्छादित रहो। आपका जीवन श्रद्धा से ओतप्रोत होना चाहिए । माता और पिता में श्रद्धा रखो, धर्म और सदाचार में श्रद्धा रखो, अपने कर्म में श्रद्धा रखो । ३. दृढ़ संकल्प से अपने व्रतों का पालन करो । एक क्षण का सद्व्यय करते हुए अपने लक्ष्य की एकओर आगे बढ़े चलो । ४. यज्ञ में = श्रेष्ठ कर्मों में प्रतिष्ठा प्राप्त करो । सदा श्रेष्ठ और शुभ कर्म ही करो । बड़ों का आदर करो, छोटों से स्नेह करो, मेलमिलाप बढ़ाओ, संघटन बनाओ और इस प्रकार प्रतिष्ठा प्राप्त करो ।

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