अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - चतुष्पदा स्वराडुष्णिक्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
317
स्व॒धया॒ परि॑हिता श्र॒द्धया॒ पर्यू॑ढा दी॒क्षया॑ गु॒प्ता य॒ज्ञे प्रति॑ष्ठिता लो॒को नि॒धन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒धया॑ । परि॑ऽहिता । श्र॒ध्दया॑ । परि॑ऽऊढा। दी॒क्षया॑ । गु॒प्ता । य॒ज्ञे । प्रति॑ऽस्थिता । लो॒क: । नि॒ऽधन॑म् ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वधया परिहिता श्रद्धया पर्यूढा दीक्षया गुप्ता यज्ञे प्रतिष्ठिता लोको निधनम् ॥
स्वर रहित पद पाठस्वधया । परिऽहिता । श्रध्दया । परिऽऊढा। दीक्षया । गुप्ता । यज्ञे । प्रतिऽस्थिता । लोक: । निऽधनम् ॥५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
[जो वेदवाणी] (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (परिहिता) सब ओर धारण की गयी, (श्रद्धया) श्रद्धा [ईश्वरविश्वास] से (पर्यूढा) अति दृढ़ की गयी, (दीक्षया) दीक्षा [नियम, व्रत, संस्कार] से (गुप्ता) रक्षा की गयी, (यज्ञे) यज्ञ [विद्वानों के सत्कार, शिल्पविद्या और शुभ गुणों के दान] में (प्रतिष्ठिता) प्रतिष्ठा [सन्मान] की गयी है, और [जिस वेदवाणी का] (लोकः) यह संसार (निधनम्) स्थिति स्थान है ॥३॥
भावार्थ
जिस वेदवाणी की प्रवृत्ति से संसार में सब प्राणी आनन्द पाते हैं, उस वेदवाणी को जो कोई अन्यायी राजा प्रचार से रोकता है, उसके राज्य में मूर्खता फैलती है और वह धर्महीन राजा संसार में निर्बल और निर्धन हो जाता है ॥१-६॥
टिप्पणी
३−(स्वधया) स्व+दधातेः−अङ्, टाप्। स्वधारणशक्त्या (परिहिता) सर्वतो धृता (श्रद्धया) ईश्वरविश्वासेन (पर्यूढा) वह प्रापणे−क्त। सर्वतो दृढीकृता (दीक्षया) नियमेन। व्रतेन। संस्कारेण (गुप्ता) रक्षिता (यज्ञे) विदुषां सत्कारे शिल्पविद्यायां शुभगुणदाने च (प्रतिष्ठिता) प्राप्तसन्माना (लोकः) संसारः (निधनम्) नितरां धीयते यत्र। स्थितिस्थानम् ॥
विषय
स्वधा...श्रद्धा...दीक्षा
पदार्थ
१. यह ब्रह्मगवी [वेदधेनु] (स्वधया परिहिता) = [स्व-धा] आत्मधारणशक्ति से परिहित है समन्तात् धारण की गई है अथवा 'पितृभ्यः स्वधा' पितरों का आदर करने से यह प्राप्त होती है। (श्रद्धया पर्यूढा) = श्रद्धा से यह वहन की गई है। बिना श्रद्धा के इस वेदज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। (दीक्षया गुप्ताः) = व्रतग्रहण से यह रक्षित होती है, अर्थात् व्रतधारण करनेवाला व्यक्ति ही इसको अपने में सुरक्षित कर पाता है। (यज्ञे प्रतिष्ठिता) = यह यज्ञ में प्रतिष्ठित है, अर्थात् यज्ञमय जीवनवाला व्यक्ति इस ब्रह्मगवी का आदर कर रहा होता है। (लोको निधनम्) = यह संसार इसका घर है [Residence], अर्थात् इस वेदवाणी का प्रयोजन इस संसार-गृह को सुन्दर बनाना ही है। २. इस ब्रह्मगवी से दिया जानेवाला (ब्रह्म) = ज्ञान (पदवायम्) = [पद्यते मुनिभिर्यस्मात् तस्मात् पद उदाहतः] उस प्रभु को प्राप्त करनेवाला है [वा गती] (ब्राह्मणः) = एक ब्रह्मचारी (अधिपति:) = इस ज्ञान का अधिपति बनता है।
भावार्थ
इस वेदवाणी की प्राप्ति के लिए 'स्वधा, श्रद्धा व दीक्षा' की आवश्यकता है। यज्ञमय जीवन से इसकी प्रतिष्ठा होती है। यह संसार ही इसका घर है-यह घर को सुन्दर बनाती है। इससे दिया गया ज्ञान हमें ब्रह्म को प्राप्त कराता है। हम इसके अधिपति 'ब्राह्मण' बनें|
भाषार्थ
(स्वधया) निज धारण तथा पोषण शक्ति से (परिहिता) सब के लिये हितकारिणी, (श्रद्धया) श्रद्धावृत्ति द्वारा (पर्यूढा) पूर्णतया धारण की गई, (दीक्षया) वैदिकधर्म में दीक्षा के द्वारा (गुप्ता) सुरक्षित हुई, (यज्ञे) यज्ञियकर्मों में (प्रतिष्ठिता) प्रतिष्ठित हुई ब्रह्मगवी है। (लोकः) इहलोक, परलोक तथा ब्रह्मलोक के ज्ञान-प्रदान में (निधनम्) ब्रह्मगवी अर्थात् ब्रह्मप्रोक्त वेदवाणी का पर्यवसान है।
टिप्पणी
[स्वधा = स्व +धा (धारणपोषणयोः), अर्थात् वेदवाणी में जो धारण और पोषण करने की निज स्वाभाविक शक्ति है, उस द्वारा वह सब के लिये हितकारिणी है। पर्यूढा= परि + ऊढा (Borne, आप्टे)। प्रतिष्ठिता= पद पाठ में "प्रति, स्थिताः" ऐसा बहुवचनान्त पाठ है। सम्भवतः इस बहुवचनान्त की दृष्टि से ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वेदोक्तधर्म-विषय) में महर्षि दयानन्द ने मन्त्र १-३ में सर्वत्र बहुवचनान्त पद माने हों। निधनम् = सामगान में हिंकारः, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार तथा निधन, ये ५ रूप माने हैं। निधन का अर्थ है सामगान का पर्यवसान अर्थात् समाप्ति]
विषय
चार साधन
शब्दार्थ
(लोक:) संसार से प्रसन्तापूर्वक, हँसते हुए (निधनम्) प्रस्थान करने के लिए (स्वधया परिहिता) अन्न-जल और स्वसामर्थ्य से दूसरों का हित सम्पादन करो (श्रद्धया परि ऊढा) श्रद्धा से आच्छादित रहो (दीक्षया गुप्ता) दृढ़ संकल्प से सुरक्षित रहो (यज्ञे प्रतिष्ठिता) यज्ञ में प्रतिष्ठा प्राप्त करो ।
भावार्थ
संसार एक क्रीड़ास्थल है । प्रत्येक व्यक्ति को अपना पार्ट पूर्ण कर यहाँ से प्रस्थान करना है । सभी को जाना है। हम यहाँ से प्रस्थान करें परन्तु हँसते हुए प्रस्थान करें। इसके लिए वेद माता हमें चार साधनों का निर्देश कर रही है - १. अन्न और जल के द्वारा तथा अपने जीवन को होम करके भी दूसरों का हित सम्पादन करो। अपने धन और धान्य से, अपने सभी साधनों से दीन, दुःखी और दलितों की खूब सेवा करो । २. श्रद्धा से आच्छादित रहो। आपका जीवन श्रद्धा से ओतप्रोत होना चाहिए । माता और पिता में श्रद्धा रखो, धर्म और सदाचार में श्रद्धा रखो, अपने कर्म में श्रद्धा रखो । ३. दृढ़ संकल्प से अपने व्रतों का पालन करो । एक क्षण का सद्व्यय करते हुए अपने लक्ष्य की एकओर आगे बढ़े चलो । ४. यज्ञ में = श्रेष्ठ कर्मों में प्रतिष्ठा प्राप्त करो । सदा श्रेष्ठ और शुभ कर्म ही करो । बड़ों का आदर करो, छोटों से स्नेह करो, मेलमिलाप बढ़ाओ, संघटन बनाओ और इस प्रकार प्रतिष्ठा प्राप्त करो ।
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
वह (स्वधया) स्वधा-अमृत शक्ति से (परिहिता) सुरक्षित, (श्रद्धया परि ऊढा) श्रद्धा से दृढ़ (दीक्षया गुप्ता) दीक्षा = दृढ़ संकल्प और बल से सुरक्षित (यज्ञे) यज्ञरूप परमेश्वर या प्रजापालक राजा पर आश्रित है। (लोकः निधनम्) यह लोक उसका आश्रय है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः। सप्त पर्यायसूक्तानि। ब्रह्मगवी देवता। तत्र प्रथमः पर्यायः। १, ६ प्राज्यापत्याऽनुष्टुप, २ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप्, ३ चतुष्पदा स्वराड् उष्णिक्, ४ आसुरी अनुष्टुप्, ५ साम्नी पंक्तिः। षडृचं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
Founded on its own essential power and potential, enshrined in faith, secured in committed loyalty, rooted in yajna, established as the end and aim of life in existence,
Translation
Set about with svadha, surrounded with faith, guarded by consecration, standing firm in the offering, the world her post.
Translation
You possessing grain etc. engage yourself in benefit of others, always be ready in accepting truth, the root of the faith. Preserve yourself with observance and practice of continence and pledge of speaking the truth. You gain fame in the service of learned men, attainment of knowledge of the various arts and in giving good qualities you attain the wordly pleasure all live in happiness till death.
Translation
It is girt round with inherent power, fortified with faith, protected by consecration, dependent upon God. The world is her resting place.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(स्वधया) स्व+दधातेः−अङ्, टाप्। स्वधारणशक्त्या (परिहिता) सर्वतो धृता (श्रद्धया) ईश्वरविश्वासेन (पर्यूढा) वह प्रापणे−क्त। सर्वतो दृढीकृता (दीक्षया) नियमेन। व्रतेन। संस्कारेण (गुप्ता) रक्षिता (यज्ञे) विदुषां सत्कारे शिल्पविद्यायां शुभगुणदाने च (प्रतिष्ठिता) प्राप्तसन्माना (लोकः) संसारः (निधनम्) नितरां धीयते यत्र। स्थितिस्थानम् ॥
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