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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - भुरिक्साम्न्यनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    593

    स॒त्येनावृ॑ता श्रि॒या प्रावृ॑ता॒ यश॑सा॒ परी॑वृता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्येन॑ । आऽवृ॑ता । श्रि॒या । प्रावृ॑ता । यश॑सा। परि॑ऽवृता॥५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्येनावृता श्रिया प्रावृता यशसा परीवृता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्येन । आऽवृता । श्रिया । प्रावृता । यशसा। परिऽवृता॥५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।

    पदार्थ

    [जो वेदवाणी] (सत्येन) सत्य [यथार्थ नियम] से (आवृता) सब प्रकार स्वीकार की गयी, (श्रिया) श्री [चक्रवर्ती राज्य आदि लक्ष्मी] से (प्रावृता) भले प्रकार अङ्गीकार की गयी और (यशसा) यश [कीर्ति] के साथ (परीवृता) सब ओर से मान की गयी है ॥२॥

    भावार्थ

    जिस वेदवाणी की प्रवृत्ति से संसार में सब प्राणी आनन्द पाते हैं, उस वेदवाणी को जो कोई अन्यायी राजा प्रचार से रोकता है, उसके राज्य में मूर्खता फैलती है और वह धर्महीन राजा संसार में निर्बल और निर्धन हो जाता है ॥१-६॥

    टिप्पणी

    २−(सत्येन) यथार्थनियमेन (आवृता) समन्तात् स्वीकृता (श्रिया) चक्रवर्तिराज्यादिलक्ष्म्या (प्रावृता) प्रकर्षेणाङ्गीकृता (यशसा) कीर्त्या (परीवृता) सर्वतो गृहीता ॥

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    विषय

    सत्यं यशः श्री:

    पदार्थ

    १. यह ब्रह्मगवी [वेदधनु] श्(रमेण तपसा सष्टा) = श्रम और तप के द्वारा उत्पन्न होती है। आलसी व आरामपसन्द को यह वेदवाणी प्राप्त नहीं होती। ब्रह्मचारी को परिश्रमी व तपस्वी होना ही चाहिए। यह वेदवाणी (ब्रह्मणा वित्ता) = ज्ञान के द्वारा प्राप्त होती है-समझदार विद्यार्थी ही इसे प्राप्त कर पाता है। (ऋते श्रिता) = यह ऋत में आश्रित है-जहाँ जीवन सूर्य व चन्द्र की भांति व्यवस्थित होता है, वहीं वेदज्ञान भी आश्रय करता है। २. यह ब्रह्मगवी (सत्येन आवृता) = सत्य से आवृत है, (श्रिया प्रावृता) = श्री से प्रावृत-खूब ही आवृत है और (यशसा परीवृता) = यश से चारों दिशाओं में आच्छादित है, अर्थात् ब्रह्मगवी को अपनानेवाला व्यक्ति सत्यवादी, श्रीसम्पन्न व यशस्वी बनता है।

     

    भावार्थ

    वेदज्ञान को प्राप्त करने के लिए 'श्रम, तप, ब्रह्म-ज्ञान-समझदारी व अस्त-व्यवस्थित जीवन' की आवश्कता है और यह वेदज्ञान हमें 'सत्य, यश व श्री' को प्राप्त कराता है।

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    भाषार्थ

    (सत्येन) सत्यज्ञान से (आवृता) आच्छादित, (श्रिया) सम्पत् से (प्रावृता) प्रकर्षरूप में ढकी हुई, तथा (यशसा) यश अर्थात् कीर्ति से (परीवृता) सब प्रकार से घिरी हुई ब्रह्मगवी अर्थात् वेदवाणी है।

    टिप्पणी

    [आवृता, प्रावृता, परीवृता-तीनों पद लगभग समानार्थक है। अभिप्राय यह कि जो राष्ट्र वैदिक सत्यज्ञान के अनुसार चलेगा, उस राष्ट्र की समृद्धि होगी, और उस का यश होगा]।

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    वह ब्रह्म वाणी (सत्येन आवृता) सत्य के बल से सुरक्षित होती है। (श्रिया) श्री, शोभा और कान्ति से (प्रावृता) ढकी होती और (यशसा परीवृता) वीर्य और तेज और सत् ख्याति से घिरी होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाचार्य ऋषिः। सप्त पर्यायसूक्तानि। ब्रह्मगवी देवता। तत्र प्रथमः पर्यायः। १, ६ प्राज्यापत्याऽनुष्टुप, २ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप्, ३ चतुष्पदा स्वराड् उष्णिक्, ४ आसुरी अनुष्टुप्, ५ साम्नी पंक्तिः। षडृचं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Cow

    Meaning

    It is consecrated with Truth, enshrined in grace, surrounded with honour,

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    Translation

    Covered with truth, enclosed with fortune, enveloped with glory.

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    Translation

    You be surrounded with righteous deeds on all sides, equipped with the wealth which is the beauty of the life and be always enveloped with fame.

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    Translation

    It is invested with truth, surrounded with beauty and grandeur, encompassed about with glory.

    Footnote

    It means Vedic knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सत्येन) यथार्थनियमेन (आवृता) समन्तात् स्वीकृता (श्रिया) चक्रवर्तिराज्यादिलक्ष्म्या (प्रावृता) प्रकर्षेणाङ्गीकृता (यशसा) कीर्त्या (परीवृता) सर्वतो गृहीता ॥

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