अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 58
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
183
अघ्न्ये॑ पद॒वीर्भ॑व ब्राह्म॒णस्या॒भिश॑स्त्या ॥
स्वर सहित पद पाठअघ्न्ये॑ । प॒द॒ऽवी: । भ॒व॒ । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । अ॒भिऽश॑स्त्या ॥१०.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अघ्न्ये पदवीर्भव ब्राह्मणस्याभिशस्त्या ॥
स्वर रहित पद पाठअघ्न्ये । पदऽवी: । भव । ब्राह्मणस्य । अभिऽशस्त्या ॥१०.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
(अघ्न्ये) हे अवध्य ! [न मारने योग्य, प्रबल वेदवाणी] (अभिशस्त्या) सब ओर स्तुति के साथ (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारी की (पदवीः) प्रतिष्ठा (भव) हो ॥५८॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये के जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी होकर बलवती वेदवाणी को प्राप्त करके संसार में प्रतिष्ठित होवें ॥५८॥
टिप्पणी
५८−(अघ्न्ये) अ० ३।३०।१। नञ्+हन हिंसागत्योः−यक्। हे अहन्तव्ये प्रबले (पदवीः) पद+वी गतिव्याप्तिप्रजनादिषु−क्विप्। प्रतिष्ठा (भव) (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारिणः (अभिशस्त्या) अभि+शंसु हिंसायां स्तुतौ कथने च−क्तिन्। सर्वतः स्तुत्या सह ॥
विषय
छेदन....हिंसा.....आशरविनाश
पदार्थ
१. हे ब्रह्मगवि! तू (जीतम्) = हिंसाकारी पुरुष को (आदाय) = पकड़कर (अमुष्मिन् लोके) = परलोक में जीताय प्रयच्छसि उससे पीड़ित पुरुष के हाथों में सौंप देती है। यह ब्रह्मज्य अगले जीवन में उस ब्राह्मण की अधीनता में होता है। हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू (ब्राह्मणस्य) = इस ज्ञानी ब्राह्मण की (अभिशस्त्या) = हिंसा से उत्पन्न होनेवाले भयंकर परिणामों को उपस्थित करके (पदवी: भव) = मार्गदर्शक बन। तू ब्रह्मज्य के लिए (मेनि:) = वज्र (भव) = हो, शरव्या लक्ष्य पर आघात करनेवाले शरसमूह के समान हो, (आघात् अघविषा भव) = कष्ट से भी घोर कष्टरूप विषवाली बन । २. हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू इस (ब्रह्मज्यस्य) = ज्ञान के विघातक, (कृतागस:) = [कृतं आगो येन] अपराधकारी, (देवपीयो:) = विद्वानों व दिव्यगुणों के हिंसक, (अराधसः) = उत्तम कार्यों को न सिद्ध होने देनेवाले दुष्ट के (शिरः प्रजहि) = सिर को कुचल डाल। (त्वया) = तेरे द्वारा (प्रमूर्णम्) = मारे गये, (मृदितम्) = चकनाचूर किये गये, (दुश्चितम्) = दुष्टबुद्धि पुरुष को (अग्निः दहतु) = अग्नि दग्ध कर दे।
भावार्थ
ब्रह्मगवी का हिंसक पुरुष जन्मान्तर में ब्राह्मणों के वश में स्थापित होता है। हिंसित ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य का हिंसन करती है। हिसित ब्रह्मगवी से यह ब्रह्मज्य अग्नि द्वारा दग्ध किया जाता है।
भाषार्थ
(अघ्न्ये) न हनन के योग्य हे गो जाति ! तू (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ की (अभिशस्त्या) गोरक्षान्दोलन में मृत्यु के कारण (पदवीः भव) अन्य रक्षकों की मार्गदर्शिका बन।
टिप्पणी
[पदवीः=पदों में गति देने वाली युद्ध के लिए; पद (पैर) + वी (गतौ)। मन्त्र में गोजाति के लिये "अघ्न्या" शब्द का प्रयोग हुआ है - यह दर्शाने के लिये कि परमेश्वर की दृष्टि में गोजाति हनन के योग्य नहीं, परन्तु फिर भी गोघातक गोजाति का हनन करते हैं। इसलिये परमेश्वर की आशा है कि हे वशे ! तू "पदवी भव" अन्य रक्षकों के लिये मार्ग दर्शिका हो जा। पदवी= पद (पैर) + वी (गतौ) =पैरों द्वारा जिस में जाया जाय। Road, Path, course, यथा "अनुयाहि साधुपदवीम्” (आप्टे)]।
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
हे (अघ्न्ये) कभी न मारने योग्य और किसी से भी न मारने योग्य ! ब्रह्मगवि ! (ब्राह्मणस्य अभिशस्त्या) ब्राह्मण के विरुद्ध होने वाले द्रोह में तू उसकी (पदवीः) पदवी, प्रतिष्ठा, मार्गदर्शक (भव) बन कर रह।
टिप्पणी
‘अभिशस्त्याः’ इति ह्विटनिकामितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
O inviolable Divine Cow, with the appreciation and praise of the Brahmana, be his firm foundation for stablility and his guide on the way forward to enlightenment and social progress.
Translation
O inviolable one, become thou the guide of the Brahman out of imprecation.
Translation
This cow is unlikable and let her be the exploring agent for the good and praize of Brahmana.
Translation
O Deathless, Inviolable Vedic knowledge, become thou the path-finder, when a learned person is maliciously misrepresented
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५८−(अघ्न्ये) अ० ३।३०।१। नञ्+हन हिंसागत्योः−यक्। हे अहन्तव्ये प्रबले (पदवीः) पद+वी गतिव्याप्तिप्रजनादिषु−क्विप्। प्रतिष्ठा (भव) (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारिणः (अभिशस्त्या) अभि+शंसु हिंसायां स्तुतौ कथने च−क्तिन्। सर्वतः स्तुत्या सह ॥
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