Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 64
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    282

    यथाया॑द्यमसाद॒नात्पा॑पलो॒कान्प॑रा॒वतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । अया॑त् । य॒म॒ऽस॒द॒नात् । पा॒प॒ऽलो॒कान् । प॒रा॒ऽवत॑: ॥११.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथायाद्यमसादनात्पापलोकान्परावतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । अयात् । यमऽसदनात् । पापऽलोकान् । पराऽवत: ॥११.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 64
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जिस से वह (यमसदनात्) न्यायगृह से (परावतः) दूर देशवाले (पापलोकान्) पापियों के लोकों [कारागार आदि स्थानों] को (अयात्) चला जावे ॥६४॥

    भावार्थ

    राजा को उचित है कि वेदव्यवस्था के अनुसार अधर्मी वेदविरोधियों को दूर कारागार में रक्खे ॥६३, ६४॥

    टिप्पणी

    ६३, ६४−(ब्रह्मज्यम्) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकारकम् (देवि) हे दिव्यगुणवति (अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये (आ मूलात्) मूलमभिव्याप्य (अनुसंदह) निरन्तरं भस्मीकुरु (यथा) येन प्रकारेण (अयात्) अय गतौ−लेट्। गच्छेत् (यमसदनात्) सांहितिको दीर्घः। राज्ञो न्यायगृहात् (पापलोकान्) पापिनां देशान्। कारागाराणि (परावतः) अ० ३।४।५। दूरगतान् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    व्रशचन....प्रव्रशचन....संव्रशचन

    पदार्थ

    १. हे (देवि) = शत्रुओं को पराजित करनेवाली (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू (ब्रह्मज्यम्) = इस ब्राह्मणों के हिंसक को-ज्ञान- विनाशक को (वृश्च) = काट डाल, (प्रवृश्च) = खूब ही काट डाल, संवृश्च सम्यक् काट डाल दह इसे जला दे, प्रदह प्रकर्षेण दग्ध कर दे और संदह सम्यक् दग्ध कर दे। (आमूलात् अनुसंदह) = जड़ तक जला डाल। २ यथा जिससे यह (ब्रह्मज्य यमसादनात्) = [अयं वै यमः याऽयं पवते] इस वायुलोक से (परावतः) = सुदूर (पापलोकान्) = पापियों को प्राप्त होनेवाले घोर लोकों को (अयात्) = जाए। मरकर यह ब्रह्मज्य वायु में विचरता हुआ पापियों को प्राप्त होनेवाले लोकों को (असुर्य लोकों को जोकि घोर अन्धकार से आवृत हैं) प्राप्त होता है। २. एवा इसप्रकार हे (देवि अघ्न्ये) = दिव्यगुणसम्पन्न अहन्तव्ये वेदवाणि! (त्वम्) = तू इस (ब्रह्मज्यस्य) = ब्रह्मघात करनेवाले दुष्ट के (स्कन्धान्) = कन्धों को (शतपर्वणा वज्रेण) = सौ पर्वोंवाले- नोकों, दन्दानोंवाले वज्र से (प्रजहि) = नष्ट कर डाल । (तीक्ष्णेन) = बड़े तीक्ष्ण (क्षुरभृष्टना) = (भृष्टि Frying) भून डालनेवाले छुरे से शिरः प्र ( जहि ) सिर को काट डाल ।

    भावार्थ

    ब्रह्मज्य का इस हिंसित वेदवाणी द्वारा ही व्रश्चन व दहन कर दिया जाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यथा) जिस तरह कि गोघाती (यमसादनात्) यम१ के सदन से (परावतः) दूरवर्ती (पापलोकान्) पापियों के लोकों को (यात्) जाए।

    टिप्पणी

    [पापलोकान्=पापियों के लोक अर्थात् कीट, पतङ्ग और वृक्ष आदि। इन्हें “परावतः” इसलिये कहा है कि इन योनियों में पहुंच कर पुनः मनुष्य योनि में आने में बहुत लम्बा काल अपेक्षित होता है]। [१. यमः="अयं वै यमो योऽयं पचते" (शतपथ १४।२।२।११)। अतः यमसादन= अन्तरिक्ष।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Cow

    Meaning

    So that the violator of Divine Cow go far beyond the House of judgement to the regions of sinners and perdition.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    That he may go from Yama’s seat to evil worlds, to the distances.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    That he may go to the states of places of tortures which extremely troublesome in comparison with the place of torture awarded by a judge.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    That he may go punished by the court of justice to distant prisons, the homes of sinners

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६३, ६४−(ब्रह्मज्यम्) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकारकम् (देवि) हे दिव्यगुणवति (अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये (आ मूलात्) मूलमभिव्याप्य (अनुसंदह) निरन्तरं भस्मीकुरु (यथा) येन प्रकारेण (अयात्) अय गतौ−लेट्। गच्छेत् (यमसदनात्) सांहितिको दीर्घः। राज्ञो न्यायगृहात् (पापलोकान्) पापिनां देशान्। कारागाराणि (परावतः) अ० ३।४।५। दूरगतान् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top